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Showing posts from June, 2020

एकक्लोनी प्रतिरक्षी (Monoclonal Antibodies)

अधिकतर एक क्लोनी प्रतिरक्षी उत्पादन करने वाली कोशिकाऐं कैन्सर जाति (Cancerous) प्रवृति में परिवर्तित हो जाती हैं। इन कोशिकाओं में विभाजन असीमित एवं अनियन्त्रित हो जाता हैं। कोशिकाओं के विभाजन से बने ऐसे पिण्ड को मायलोमा (Myeloma) कहते हैं। मायलोमा एकल कोशिका के विभाजन से प्राप्त होता हैं , अतः सभी संतति कोशिकाओं में एक समान जीन पाए जाते है। इन्हें क्लोन (Clone) कहते हैं। इस प्रकार से बने क्लोन की यह विशेषता होती हैं कि ये एक प्रकार के प्रतिरक्षियों का उत्पादन करते हैं।   सन् 1975 में जर्मनी के जॉर्ज जे. एफ. कोहलर (George J.F. Kohler) एवं अर्जेन्टीना के सीजर मिल्सटेन (Cesar Milstein) ने अपने प्रयोगों से मायलोमा के एकल क्लोन से प्रतिरक्षियों के उत्पादन की विधि विकसित की ।इन प्रतिरक्षियों को एकक्लोनी प्रतिरक्षी (Monoclonal antibodies) कहते हैं। इस कार्य के लिए इन दोनों वैज्ञानिकों को सन् 1984 में संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार (Nobel Prize) मिला। एक क्लोनल एवं हाइब्रिडोमा तकनीक (Hybridoma technology) का विकास एक महत्वपूर्ण घटना है। कैन्सर एवं प्रतिरोधी तन्त्र (Immune system

आंतरिक सुरक्षा क्रियाविधि (Internal Defence Mechanism)

हमारे शरीर में 2 प्रकार की आन्तरिक सुरक्षा क्रियाविधि पाई जाती हैं - 1. अविशिष्ट सुरक्षा क्रियाविधि (Non-specific defense mechanism) 2. विशिष्ट सुरक्षा क्रियाविधि (Specific defense mechanism)   1. अविशिष्ट सुरक्षा क्रियाविधि (Non-specific defense mechanism) - पेथोजन के विपरीत प्रथम सुरक्षा कवच हमारे शरीर में त्वचा होती हैं। त्वचा अवरोधक का कार्य करती हैं। त्वचा शरीर में रोगाणुओं , जीवाणुओं तथा परजीवियों को शरीर में प्रवेश करने से रोकती हैं। दूसरा अविशिष्ट सुरक्षा त्वचा द्वारा स्त्रावित पसीना एवं सीबम (Sweat and Sebum) होता हैं , जिसमें कई रसायन होते हैं , जो कई प्रकार के जीवाणुओं को नष्ट कर देते हैं।             सूक्ष्मजीव जो भोजन के साथ प्रवेश करते हैं , वे आमाशय द्वारा स्त्रावित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) एवं एंजाइम द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं। जो रोगाणु श्वसन में हवा के साथ शरीर में प्रवेश करते हैं वे नाक के रोमों द्वारा छान लिए जाते हैं। श्वसन पथ में म्यूकस द्वारा रोक लिए जाते हैं एवं फेगोसाइटोसिस द्वारा नष्ट कर दिए जाते हैं।   अगर रोगाणु ऊत्तक में प्रवेश क

प्रतिरक्षा क्या है ? (What is immunity ?)

रोधक क्षमता या प्रतिरोधकता या असंक्राम्यता से हमारा तात्पर्य सूक्ष्म जीवों से होने वाली या इनसे उत्पन्न पदार्थों से होने वाली हानि के प्रति क्रिया करना या अवरोध उत्पन्न करना होता हैं। जन्तु के शरीर पर वातावरण में कई प्रकार के विषाणुओं , जीवाणुओं , कवकों तथा परजीवी जन्तुओं का आक्रमण होता हैं। शरीर में वातावरण से विषैले पदार्थ भी प्रवेश करते रहते हैं। शरीर के भीतर भी रोगग्रस्त ऊत्तकों द्वारा विषैले पदार्थ मुक्त होते रहते हैं। शरीर में सभी प्रकार के आक्रामक जीवों और प्रतिजनों (Antigens) के दुष्प्रभाव का प्रतिरोध करने की क्षमता होती हैं , जिसे शरीर की प्रतिरक्षा (Immunity) कहते हैं।             वाल्टेअर (Voltaire) ने 1733 में सर्वप्रथम इस ओर ध्यान आकर्षित किया था कि चेचक से ग्रसित रोगियों में कुछ रोगियों की तो मृत्यु हो जाती है , जबकि कुछ रोग से संघर्ष करने के बाद स्वस्थ हो जाते हैं। अतः रोग से संघर्ष करने की क्षमता को ही प्रतिरक्षा कहते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र ((Immune system) के अध्ययन की शाखा को प्रतिरक्षण-विज्ञान (Immunology) कहते हैं।   प्रतिरक्षा को निम्न परिभाषा द्वारा

प्रतिवर्ती क्रियाएं (Reflex actions)

प्राणियों के शरीर में होने वाली समस्त क्रियाओं को दो समूहो में विभाजित किया जा सकता है - A. ऐच्छिक क्रियाएं B. अनैच्छिक क्रियाएं   A. ऐच्छिक क्रियाएं (Voluntary actions) - ऐच्छिक क्रियाएं प्रायः प्राणी की इच्छा शक्ति (Will power) एवं चेतना (Consciousness) पर आश्रित रहती हैं , क्योंकि इन पर प्रमस्तिष्क का नियंत्रण रहता है।   B. अनैच्छिक क्रियाएं (Involuntary actions) - अनैच्छिक क्रियाएं इच्छा शक्ति के अधीन न होकर स्वतः घटित होने वाली क्रियाएं मानी गयी हैं। इसके अतिरिक्त इन क्रियाओं पर प्रमस्तिष्क का नियन्त्रण भी नहीं होता। इन्हें मस्तिष्क या मेरूरज्जु का कोई भी भाग या अन्य भाग नियन्त्रित कर लेता है अर्थात् जन्तु में मस्तिष्क की अनुपस्थिति का इन क्रियाओं पर कोई अनुकूल या प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। सन् 1933 में मार्शल हॉल (Marshal Hall) ने इन अनैच्छिक क्रियाओं को प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex actions) की संज्ञा दी थी। बेस्ट एवं टेलर (Best & Taylor) के अनुसार प्रतिवर्ती क्रियाएं स्वचालित (Automatic), अनैच्छिक (Involuntary) एवं अचेत (Unconscious) क्रियाएं

संतुलित आहार (Balanced diet)

हमारे शरीर में पोषक पदार्थों का निर्माण उचित मात्रा में नहीं हो सकता हैं। अतः इन्हें आहार के साथ लेना आवश्यक होता हैं। वह आहार (Diet) जो हमारे शरीर की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करे , उसे सन्तुलित आहार (Balanced diet) कहते हैं। सन्तुलित आहार पर वैज्ञानिकों ने बहुत कार्य किया है एवं उनके अनुसार अच्छी तन्दरूस्ती (Good health) के लिये हमें ऊर्जा देने वाला पोषण चाहिए , जिसमें प्रोटीन , वसा , कार्बोहाइड्रेट्स , विटामिन , लवण व पानी आदि उपस्थित हो। हमें विशिष्ट पोषक तत्व की आवश्यकता होती है , जिसमें 9 आवश्यक अमीनों अम्ल , कई वसा अम्ल , 4 वसा घुलनशील विटामिन , 10 पानी में घुलनशील विटामिन एवं कोलिन इसी के साथ कई अकार्बनिक पदार्थ , कई ट्रेस मिनरल्स , 3 इलेक्ट्रापेलाइट एवं अल्ट्रा ट्रेस तत्व (Ultra trace elements) भी हमारे आहर में आवश्यक होते हैं।             हमारे शरीर में आवश्यक जरूरी पोषक तत्व की मात्रा उम्र व कार्यिकीय स्थिति (Physiological state) पर निर्भर करती हैं। वह आहार जिसमें पर्याप्त मात्रा में सभी पौष्टिक तत्व (कार्बोज , प्रोटीन , वसा , खनिज लवण एवं विटामिन) विद्यमान हो

कोरी चक्र व पेशी-संकुचन उर्जिकी (Cori Cycle & Muscle-Contraction Energy)

कॉरी चक्र (Cori cycle) - कॉरी चक्र उन चक्रीय परिवर्तनों को कहते है , जो अत्यधिक परिश्रम करने पर पेशी से लैक्टिक अम्ल के निष्कासन के लिए पेशी व यकृत में होते है। पेशी संकुचन के समय पेशी के ग्लाइकोजन से ऊर्जा प्राप्त होती है। ग्लाइकोजन सर्वप्रथम ग्लूकोस में बदलता है। सामान्य अवस्थाओं में ग्लूकोस के ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) द्वारा उत्पन्न पाइरूविक अम्ल (Pyruvic acid) TCA चक्र (Tri Carboxylic Acid Cycle) में प्रवेश करते हैं और पूर्ण रूप से CO 2 व जल में ऑक्सीकृत हो जाते हैं। पेशियों में ऑक्सीजन का संभरण इतना दक्ष होता हैं कि थोड़ा-बहुत परिश्रम करने पर उत्पन्न लैक्टिक अम्ल पेशी-तंतुओं में एकत्रित नहीं हो पाता।   Cori cycle

प्रतिधारा गुणक प्रणाली (Counter Multiplier mechanism)

वृक्क में मूत्र की सान्द्रता को कम या अधिक करने की क्षमता होती है। यह क्षमता वृक्क के मेड्यूला भाग की अंतराकाशी द्रव (Interstitial fluid) में उपस्थित अत्यधिक लवण सान्द्रता पर निर्भर करती हैं। एक निरन्तर प्रतिधारा प्रवाह वृक्क नलिका में बनी रहती है। इस प्रवाह के लिए वृक्क नलिका के हेनले लूप तथा वासा रेक्टा रूधिर केशिकाओं की केश-पिनाकार आकार व्यवस्था उत्तरदायी है। फिल्ट्रेट इन केश पिनाकार आकार के हेनले लूप एवं वासा रेक्टा में पहले एक दिशा में तथा फिर इसके एकदम विपरीत दिशा में बहता है , इसी प्रवाह को प्रतिधारा प्रवाह (Counter current flow) कहते हैं।             इस प्रवाह के मध्य ही लवणों तथा जल का विनिमय होता है तथा एक परासरणी प्रवणता (Osmotic gradient) बनी रहती है। वृक्क कॉर्टेक्स का अंतराकाशी द्रव रूधिर के समपरासारी (Isotonic) होता है जबकि मैड्यूला का अंतराकाशी द्रव अतिपरासारी (Hypertonic) होता हैं। इस परासरणी प्रवणता को बनाए रखने में हेनले लूप एवं वासा रेक्टा में प्रतिधारा प्रवाह के दौरान निम्नलिखित प्रतिक्रियायें होती हैं -  

ओर्निथिन चक्र (Ornithine cycle)

यकृत में अमोनिया से यूरिया बनाने की क्रिया भी होती हैं। यह एक जटिल रासायनिक प्रतिक्रिया है , जिसे ऑर्निथिन चक्र (Ornithine cycle) कहते हैं। इसी का नाम क्रेब्स-हैन्सेलेट (Krebs-Henslet cycle) चक्र भी हैं। यूरिया बनने की संपूर्ण प्रक्रिया एक चक्रीय प्रक्रिया हैं तथा इसमें अमोनिया , कार्बनडाइऑक्साइड एवं अमीनो अम्ल का समूह भाग लेते हैं। इसलिए ही इसे ‘ ऑर्निथीन-ऑर्जिनीन चक्र ’ (Ornithine-Arginine cycle) भी कहते हैं। यह निम्न पदों में पूरा होता हैं -   Ornithine cycle

उत्सर्जन तंत्र (Excretory system)

प्राणी उपापचयी अथवा अत्यधिक अंतःग्रहण जैसी क्रियाओं द्वारा अमोनिया , यूरिया , यूरिक अम्ल , कार्बनडाइऑक्साइड , जल और अन्य आयन जैसे सोडियम , पोटैसियम , क्लोरीन , फॉस्फेट , सल्फेट आदि का संचय करते हैं। प्राणियों द्वारा इन पदार्थों का पूर्णतया या आंशिक रूप से निष्कासन आवश्यक है। प्राणियों द्वारा उत्सर्जित होने वाले नाइट्रोजनी अपशिष्टों में मुख्य रूप से अमोनिया , यूरिया और यूरिक हैं। इनमें अमोनिया सर्वाधिक आविष (Toxic ) है और इसके निष्कासन के लिए अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है। यूरिक अम्ल कम आविष है और जल की कम मात्रा के साथ निष्कासित किया जा सकता है। अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को अमोनियोत्सर्ग   प्रक्रिया कहते हैं।   अनेक अस्थिल मछलियाँ , उभयचर और जलीय कीट अमोनिया उत्सर्जी प्रकृति के हैं। अमोनिया सरलता से घुलनशील है , इसलिए आसानी से अमोनियम आयनों के रूप में शरीर की सतह या मछलियों के क्लोम (Gill ) की सतह से विसरण द्वारा उत्सर्जित हो जाते हैं। इस उत्सर्जन में वृक्क की कोई अहम भूमिका नहीं होती है। इन प्राणियों को अमोनियाउत्सर्जी (Ammonotelic ) कहते हैं। स्थलीय आवास में अनुकूलन ह

सी.टी. स्कैन क्या है ? [What is CT Scan ?]

CT Scan = Computed Tomography Scan यह चिकित्सा विज्ञान की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण तकनीक है , जिसमें एक्स किरणों (X-rays) के प्रयोग को कम्प्यूटर तकनीक के साथ संयोजित करते हुए शरीर के किसी भाग का द्विविमीय अथवा त्रिविमीय (Two or Three dimensional) अनुप्रस्थ काट (Cross sectioned) चित्र प्राप्त किया जा सकता है। इस चित्र (Image) में समस्त अंग अलग-अलग स्पष्ट दिखाई देते हैं। इस तकनीक का विकास ब्रिटेन के भौतिक विज्ञानी गॉडफ्रे हॉन्सफील्ड (Godfrey Hounsfield) द्वारा 1968 में किया गया। इन्हें इस खोज के लिए 1979 में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।  

एम.आर.आई. जाँच क्या है ? [What is MRI Test ?]

एम.आर.आई. (Magnetic Resonance Imaging; MRI) तकनीक की खोज का श्रेय फेलिक्स ब्लॉक (Felix Bloch) एवं एडवर्ड एम. परसेल (Edward M. Purcell) को जाता है , जिन्हें इसके लिए 1952 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। चिकित्सा विज्ञान में इसका उपयोग रेमन्ड दैमेडियन (Raymond Damadian) द्वारा प्रारंभ किया गया।  

एंडोस्कोपी क्या है ?(What is endoscopy ?)

आज कल आहारनाल अर्थात् ग्रसिका , आमाशय , ग्रहणी आंत्र , कोलन आदि अंगों के आंतरिक रोगों का पता अन्तर्दर्शीता विधि (Endoscopy) से ज्ञात किये जाते हैं। यहां तक यकृत एवं अग्नाशय के अन्दर उपस्थित पत्थर आदि को निकालने का कार्य अन्तर्दर्शीता विधि से किया जाता है। मलाशय , कोलन एवं मूत्राशय का भी इलाज अन्तर्दर्शीता विधि से किया जाता है। यह अत्यधिक आधुनिक एवं विकसित विधि है , जिसके द्वारा बिना चिर-फाड़ के रोग का पता भी लगाया जा सकता हैं एवं निदान भी किया जाता हैं। इस विधि में एक लम्बी नली जिसके अग्र सिरे पर कैमरा एवं केथेड्रिल लगा रहता है , का उपयोग किया जाता हैं। रोगी के मुख के द्वारा यह नली आहार नाल में कोलन तक प्रवेश कराई जा सकती है। आमाशय में प्रवेश कराने पर अन्तर्दर्शीता नली में लगे कैमरे के द्वारा विभिन्न भागों की फोटों प्राप्त किये जाते हैं। इन फोटों से ज्ञात होता हैं , कि आमाशय के किस भाग में फोड़ा (Alsar) हैं या किस भाग से रक्त का स्त्राव हो रहा हैं। केथेड्रिल की सहायता से अल्सर का इलाज किया जाता हैं। इसी के द्वारा रक्त स्त्राव के स्थान को उपचारित किया जाता हैं। आमाशय में पाई जाने वा

ई.सी.जी. क्या है ?[What is ECG ?]

यह चिकित्सा विज्ञान की एक महत्वपूर्ण तकनीक है , जिसके द्वारा हृदय की कार्यशील अवस्था (Functioning or beating heart) में तंत्रिकाओं तथा पेशियों द्वारा उत्पन्न विद्युतीय संकेतों (Electrical signals) का अध्ययन कर उनको रिकॉर्ड किया जाता है। इस कार्य में प्रयुक्त उपकरण इलेक्ट्रोकॉर्डियोंग्राफ (Electrocardiograph) कहलाता है तथा विद्युत संकेतों के ग्राफीकल रिकॉर्ड को इलेक्ट्रोकार्डियोग्राम (Electrocardiogram) कहते हैं।   ECG

ई.ई.जी. क्या है ? [What is E.E.G. ?]

इलेक्ट्रोएनसिफेलोग्राफी (Electroencephalography) तकनीक में मस्तिष्क के विभिन्न भागों की विद्युत क्रिया (Electrical activity) का मापन कर उनको आवर्धित रूप में रिकॉर्ड किया जाता है। सैटन (Satton) ने 1875 में सर्वप्रथम उद्भाषित (Exposed) मस्तिष्क में विद्युतीय सक्रियता की खोज की। सन् 1929 में हैन्स बर्जर (Hans Berger) ने मस्तिष्क की यथास्थिति (Intact brain) में भी सर्वप्रथम ऐसी विद्युतीय सक्रियता का रिकॉर्ड ट्रेस करने में सफलता प्राप्त की। मस्तिष्क की विद्युतीय सक्रियता में माइक्रोवोल्ट के स्तर की क्षणजीवी (Transient) तरंगें प्राप्त होती हैं , जिनको अधिक स्पष्ट व सुग्राही बनाने हेतु रिकॉर्ड करने से पूर्व उन्हें आवर्धित (Amplified) किया जाता है। इस प्रकार जो रिकॉर्ड प्राप्त होता है , उसे इलेक्ट्रोएनसिफेलोग्राम (Electroencephalogram) कहते हैं।  

स्वच्छ विकास साधन (Clean Development Mechanism; CDM)

जापान के क्योटो (Kyoto) शहर में 11 दिसम्बर , 1997 को UNFCCC (United Nations Framework Convention on Climate Change) द्वारा प्रस्तावित क्योटो संधिपत्र (Kyoto Protocol) को 150 देशों ने स्वीकार किया हैं। यह एक अंतर्राष्ट्रीय संधि (International Treaty) है जिसके अंतर्गत औद्योगीकृत तथा विकासशील दोनों प्रकार के देशों पर यह बाध्यता (Binding) तथा नियंत्रण होगा कि वे अपने देश में ग्रीन हाउस गैसों (Green House Gases; GHG) के उत्सर्जन (Emission) में कमी करे तथा इस सम्बन्ध में आगे बनने वाले अंतर्राष्ट्रीय नियमों की पालना करें।           क्योटो संधि की तत्काल लागू की गई धारा (Article) के अनुसार संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले सभी राष्ट्र प्रथम प्रयास के रूप में , जिसकी अवधि 2008-2012 के मध्य थी , अपने देश में 1990 में ग्रीन हाउस गैसों का जो स्तर था उसमें 5 प्रतिशत की कटौती करे। उदाहरण के लिए अगर अमुक देश ‘ अ ’ में 1990 में ग्रीन हाउस गैसों का प्रतिशत वायुमण्डल के संगठन के अनुसार 1.00 प्रतिशत था तो 2008-2012 तक यह मात्रा घटकर 0.995 प्रतिशत हो जाये।