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प्रतिरक्षा क्या है ? (What is immunity ?)

रोधक क्षमता या प्रतिरोधकता या असंक्राम्यता से हमारा तात्पर्य सूक्ष्म जीवों से होने वाली या इनसे उत्पन्न पदार्थों से होने वाली हानि के प्रति क्रिया करना या अवरोध उत्पन्न करना होता हैं। जन्तु के शरीर पर वातावरण में कई प्रकार के विषाणुओं, जीवाणुओं, कवकों तथा परजीवी जन्तुओं का आक्रमण होता हैं। शरीर में वातावरण से विषैले पदार्थ भी प्रवेश करते रहते हैं। शरीर के भीतर भी रोगग्रस्त ऊत्तकों द्वारा विषैले पदार्थ मुक्त होते रहते हैं। शरीर में सभी प्रकार के आक्रामक जीवों और प्रतिजनों (Antigens) के दुष्प्रभाव का प्रतिरोध करने की क्षमता होती हैं, जिसे शरीर की प्रतिरक्षा (Immunity) कहते हैं।

 

          वाल्टेअर (Voltaire) ने 1733 में सर्वप्रथम इस ओर ध्यान आकर्षित किया था कि चेचक से ग्रसित रोगियों में कुछ रोगियों की तो मृत्यु हो जाती है, जबकि कुछ रोग से संघर्ष करने के बाद स्वस्थ हो जाते हैं। अतः रोग से संघर्ष करने की क्षमता को ही प्रतिरक्षा कहते हैं। प्रतिरक्षा तंत्र ((Immune system) के अध्ययन की शाखा को प्रतिरक्षण-विज्ञान (Immunology) कहते हैं।

 

प्रतिरक्षा को निम्न परिभाषा द्वारा परिभाषित कर सकते हैं -

किसी विशेष रोगाणुओं के लिए प्रतिरोध उत्पन्न करने या किसी रोग के प्रति प्रतिरोध करने के गुण को प्रतिरक्षा कहते हैं।

जिस व्यक्ति में यह क्षमता होती हैं, उसे प्रतिरक्षण शक्ति युक्त (Immune) कहते हैं। एक जन्तु किसी एक रोग के प्रति रोग प्रतिरक्षा रखता है, तो दूसरे जन्तु में यह क्षमता जन्म से ही होती है और कुछ में यह कृत्रिम रूप से उत्पन्न की जाती हैं।

 

 

प्रतिरक्षा के प्रकार (Types of Immunity) -

विभिन्न प्रकार की संक्रामक रोगों से रक्षा हेतु विभिन्न प्रकार की प्रतिरक्षा निम्नांकित रूप में पाई जाती हैं –

 

 

Types of immunity
Types of immunity

 

1.सहज प्रतिरक्षा (Innate Immunity) -

सहज प्रतिरक्षा में प्राणियों में रोगाणुओं (संक्रमण) से लड़ने की क्षमता जन्म से ही पाई जाती हैं। सहज प्रतिरक्षा संक्रमण के प्रति ऐसा प्रतिरोध है, जो व्यक्ति विशेष अपनी आनुवंशिक व संघटनीय बनावट में धारित किये रहता हैं। प्रतिरक्षा की क्षमता का सम्बन्ध आनुवंशिक होता हैं। इन्हें प्रतिजैविक पदार्थों के लिए बाह्य स्त्रोत पर निर्भर नहीं रहना पड़ता है। सहज प्रतिरक्षा की क्षमता अविशिष्ट (Non-specific) होती हैं। सहज प्रतिरक्षा को निम्न 3 भागों में वर्गीकृत किया गया है -

 

.व्यक्तिगत प्रतिरक्षा (Individual Immunity) -

किसी व्यक्ति विशेष में विशिष्ट रोग के प्रति प्रतिरक्षा की क्षमता पाई जाती है, जो किसी दूसरे व्यक्ति में नहीं पाई जाती हैं अर्थात् एक व्यक्ति में एक रोग के प्रति प्रतिरक्षा की क्षमता हो सकती है, तो दूसरे व्यक्ति में उस रोग के प्रति प्रतिरक्षा की क्षमता का अभाव होता हैं। अतः इस प्रकार की प्रतिरक्षा को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा कहते हैं।

 

. वर्गीय प्रतिरक्षा (Species Immunity) -

कुछ विशेष वर्ग के प्राणियों में विशिष्ट रोग नहीं होते हैं। मनुष्य में पोलियों (Poliomyelitis), गलसुआ (Mumps), हैजा (Cholera), खसरा (Measles), सूजाक (Syphilis) आदि गम्भीर रोग होते हैं, जो अन्य स्तनधारियों में नहीं होते हैं। प्रतिरक्षा ऐसे रोगों से शरीर की सुरक्षा करती हैं।

 

. प्रजातीय प्रतिरक्षा (Racial Immunity) -

रोगों के प्रभाव के प्रति प्रजातीय विभिन्नताएं भी पाई जाती हैं। निग्रो प्रजाति के लोागों को पीत ज्वर (Yellow fever) नहीं होता हैं। जबकि अन्य प्रजातियों में यह रोग पाया जाता हैं। इसी प्रकार अल्जीरिया की भेड़ों तथा यूरोप की भेड़ों में एन्थ्रेक्स रोग के प्रति प्रतिरक्षा में अन्तर होता हैं।

 

 

2. उपार्जित प्रतिरक्षा (Acquired Immunity) -

सभी जीवों में सभी रोगों के प्रति प्रतिरक्षा की क्षमता नहीं पाई जाती है। उनमें कुछ रोगों के लिए यह क्षमता बाह्य स्त्रोत से शरीर में प्रवेश कराके उत्पन्न की जाती हैं, इस प्रकार की प्रतिरोधी क्षमता जीवन भर आवश्यकतानुसार ग्रहण करनी पड़ती है। इस प्रकार प्राप्त की गई प्रतिरक्षा को उपार्जित प्रतिरक्षा कहते हैं। उपार्जित प्रतिरक्षा की एक निश्चित अवधि होती है तथा इस अवधि के समाप्त होने पर इसका प्रभाव नष्ट हो जाता है। इस प्रकार उपार्जित प्रतिरक्षा अस्थाई होती हैं। टीके (Vaccines) व प्रतिजैविक द्वारा कई भयंकर रोगों जैसे - चेचक, टिटनेस, खसरा, पीत ज्वर, डिप्थीरिया, इन्फ्लूएन्जा, पोलियो आदि के प्रति प्रतिरक्षा प्राप्त की जाती हैं। उपार्जित प्रतिरक्षा 2 प्रकार की होती हैं -

 

. सक्रिय प्रतिरक्षा (Active Immunity) -

इस प्रकार की प्रतिरक्षा में प्रतिरोध (Resistance) प्रतिजन के द्वारा उद्दीपन मिलने पर उत्पन्न होता हैं। प्रतिजन (Antigens) के प्रवेश करने के फलतः शरीर में प्रतिरक्षा तंत्र (Immune system) सक्रिय होता है, जिसके परिणामस्वरूप प्रतिरक्षी (Antibodies) का निर्माण होता है। प्रतिरक्षी रोग विशेष के प्रति प्रतिरोधिता क्षमता उत्पन्न करते हैं। सक्रिय प्रतिरक्षा प्राकृतिक या कृत्रिम हो सकती हैं।

 

अ. प्राकृतिक सक्रिय प्रतिरक्षा (Natural active immunity) -

उपार्जित सक्रिय प्रतिरक्षा प्राकृतिक (Natural) होती हैं, जैसे एक व्यक्ति चेचक के रोग से पीड़ित होकर पुनः स्वस्थ हो जाता हैं। ऐसे व्यक्ति में पुनः चेचक का रोग नहीं होता है, क्योंकि उसके शरीर में प्रतिरक्षा की क्षमता पूर्व में ही विद्यमान होती है, क्योंकि वह स्वयं प्रतिजैविक का निर्माण कर चुका होता हैं। सक्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा का प्रभाव अधिकांशतः लम्बे समय तक बना रहता है। विकासशील देशों में व्यक्तियों में पोलियो माइटिलस (Poliomyelitis) के प्रति प्राकृतिक सक्रिय प्रतिरक्षा अधिक संख्या में देखने को मिलती है। बाल्यावस्था में पोलियों वायरस के बार-बार संक्रमण के कारण होता हैं।

 

ब. कृत्रिम सक्रिय प्रतिरक्षा (Artificial active immunity) -

इस प्रकार की प्रतिरक्षा किसी व्यक्ति या प्राणी के शरीर में टीके (Vaccine) लगाकर उत्पन्न की जाती हैं। शरीर में टीके के रूप में प्रतिजन (Antigen) प्रवेश करायें जाते हैं, जो प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय बना देते हैं। टीकों को मृत या जीवित या क्षीणीकृत सूक्ष्मजीवों या उनके उत्पादों से बनाया जाता हैं। कुछ टीकों के उदाहरण निम्नांकित हैं -

#जीवाणु टीके -

*जीवित (Live) ट्यूबरकुलोसिस के लिए बी.सी.जी. (B.C.G. for tuberculosis)

*मृत (Killed) टाइफाइड के लिए टी.ए.बी. (TAB for typhoid fever)

 

#वायरल टीके -

*जीवित (Live) मुखी पोलियो माइटिलस (Oral Poliomyelitis)

*मृत (Killed) पोलियो माइटिलस के लिए साक टीका (Salk vaccine)

 

#जीवाणु उत्पाद (Bacterial products) - डिप्थीरिया व टिटनेस के लिए टॉक्सिन्स

 

. निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा (Passive Acquired Immunity) -

सक्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा के अन्तर्गत प्राणी अपने शरीर में प्रतिजन (Antigen) के परिणामस्वरूप प्रतिरक्षी उत्पन्न करता है, जबकि इसके विपरीत प्राणी (पोषक) बिना प्रतिजन के प्रवेश के प्रतिरक्षा की क्षमता उत्पन्न कर सकता है, ऐसा निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा द्वारा संभव होता हैं। निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा में प्राणी परपोषक (host) के शरीर में प्रतिरक्षा की क्षमता उत्पन्न करने के लिए पूर्वनिर्मित (Readymade) प्रतिरक्षी (antibodies) प्रवेश कराये जाते हैं। इस प्रकार रोग से शीघ्र बचाव हो जाता हैं। इसका प्रभाव कुछ समय के लिए ही रहता है। उसके पश्चात् प्रतिरक्षी स्वयंनिष्क्रिय हो जाते हैं। यह निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा अस्थाई होती हैं। निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा कृत्रिम एवं प्राकृतिक होती हैं।

 

अ. कृत्रिम निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा (Artificial passive acquired immunity) -

कृत्रिम निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा उत्पन्न करने के लिए पहले किसी पशु (जैसे- घोड़ा) के शरीर में मरे हुए या कम क्रियाशील रोगाणु प्रवेश कराये जाते हैं, जिससे इनके शरीर में प्रतिरक्षी का निर्माण प्रारम्भ हो जाए। ऐसे प्रतिरक्षी के निर्माण में समय लगता हैं। कुछ समय पश्चात् उसका रक्त प्राप्त कर उसमें से सीरम (Serum) अलग किया जाता है। सीरम में प्रतिरक्षी उपस्थित होते हैं। यह सीरम मनुष्य के शरीर में प्रवेश करा कर कुछ समय के लिए निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा की क्षमता प्राप्त की जा सकती हैं। उदाहरण के लिए टिटनेस रोग के लिए एन्टीटिटेनस सीरम (A.T.S.) घोड़ें के शरीर में तैयार किया जाता हैं।

 

ब. प्राकृतिक निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा (Natural passive acquired immunity) -

प्राकृतिक निष्क्रिय उपार्जित प्रतिरक्षा के अन्तर्गत माता के शरीर से उसके गर्भाशय में विकास कर रहे शिशु के शरीर में स्थानांतरित होती हैं। इस प्रकार माता से प्राप्त प्रतिरक्षी से शिशु में प्रतिरोध क्षमता उत्पन्न होती हैं। अधिकांशतः प्रतिरक्षी का माता से शिशु में स्थानान्तरण प्लैसेन्टा के द्वारा होता हैं, परन्तु कुछ में यह मुख द्वारा नवदुग्ध (Colostrum) के साथ भी होता हैं।





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