1.मुखगुहा में पाचन (Digestion in mouth)
-
पाचन की प्रक्रिया यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों
द्वारा सम्पन्न होती हैं। मुखगुहा के मुख्यतः दो कार्य होते हैं- (अ) भोजन को
चबाना व (ब) निगलने की क्रिया।
लार
की मदद से दाँत और जिह्वा भोजन को अच्छी तरह चबाने एवं मिलाने का कार्य करते हैं।
लार का श्लेष्म भोजन के कणों को चिपकाने एवं उन्हें बोलस (Bolus) में रूपान्तरित करने में मदद करता हैं। इसके उपरान्त निगलने की क्रिया
द्वारा बोलस ग्रसनी से ग्रसिका में चला जाता हैं। बोलस पेशीय संकुचन के
क्रमानुकुंचन द्वारा ग्रसिका में आगे बढ़ता हैं। जठर ग्रसिका अवरोधनी भोजन के आमाशय
में प्रवेश को नियंत्रित करता हैं। लार में विद्युत अपघट्य (सोडियम व पोटेशियम
क्लोराइड आदि) और एंजाइम्स (लारीय एमाइलेज/टायलिन तथा लाइसोजाइम) होते हैं। पाचन
की रासायनिक प्रक्रिया मुखगुहा में कार्बोहाइड्रेट्स को जल अपघटित करने वाले
एंजाइम टायलिन या लारीय एमाइलेज की सक्रियता से प्रारंभ होती हैं। लगभग 30 प्रतिशत स्टार्च इसी एंजाइम की सक्रियता से डाइसैकेराइड माल्टोज में
अपघटित होती हैं। लार में उपस्थित लाइसोजाइम जीवाणुओं के संक्रमण को रोकता हैं।
2. आमाशय में पाचन (Digestion in stomach) -
आमाशय की म्यूकोसा में जठर ग्रन्थियाँ स्थित होती हैं, जिनमें तीन प्रकार की कोशिकाऐं होती हैं -
(अ) पेप्टिक या मुख्य
कोशिकायें (Peptic or chief cells) -
ये कोशिकायें प्रोएंजाइम पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन का स्त्रवण करती हैं।
(ब)
भित्तिय/परिधीय/ऑक्सिंटिक कोशिकायें (Parietal or oxyntic cells) - ये कोशिकायें हाइड्रोक्लोरिक अम्ल व नैज कारक
(इंट्रीसिक फेक्टर) का स्त्रवण करती हैं।
(स) श्लेष्मा कोशिकायें (Mucous
cells) - ये कोशिकायें श्लेष्मा का स्त्रवण
करती हैं।
भोजन आमाशय में 4-5 घण्टे तक रूकता
हैं। आमाशय की पेशीय दीवार के संकुचन द्वारा भोजन में अम्लीय जठर रस पूरी तरह मिल
जाता हैं। अब इसे काइम कहते हैं। हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCL)
निष्क्रिय प्रोएंजाइम पेप्सिनोजन को सक्रिय एंजाइम पेप्सिन में व प्रोरेनिन को
सक्रिय एंजाइम रेनिन में परिवर्तित करता हैं। पेप्सिन आमाशय का प्रमुख प्रोटीन
अपघटनीय एंजाइम हैं। पेप्सिन प्रोटीनों को प्रोटीओजेज व पेप्टोन्स में तोड़ता हैं।
जठर रसस में उपस्थित श्लेष्म एवं बाइकार्बोनेट भोजन के अणुओं को आपस में चिपकाऐं
रखते हैं तथा अत्यधिक सांद्रित हाइड्रोक्लोरिक अम्ल से आमाशय की उपकला का बचाव
करते है। एचसीएल पेप्सिन के लिए उचित अम्लीय माध्यम तैयार करता हैं।(पीएच-1.8)
नवजातों के जठर रस में रेनिन नामक प्रोटीन अपघटनीय एंजाइम होता हैं,
जो दूध के प्रोटीन केसिनोजन को कैल्सियम पेराकैसिनेट में बदलकर
पचाता हैं। जठर ग्रन्थियाँ थोड़ी मात्रा में एचसीएल स्त्रावित करती हैं।
हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (एचसीएल) के कार्य -
1.निष्क्रिय एंजाइमों को सक्रिय एंजाइमों में
बदलना।
2. भोजन में उपस्थित जीवाणुओं को नष्ट करना।
3. एंजाइमों के लिए अम्लीय माध्यम प्रदान करना।
4. भोजन के कठोर कणों को कोमल कणों में परिवर्तित
करना।
5. भोजन पर लार की क्रिया को समाप्त करना।
3. छोटी आँत में पाचन (Digestion in small intestine) -
इसमें अधिकतर अभिक्रियाऐं/पाचन ग्रहणी में होता हैं।
छोटी आँत का पेशीय स्तर कईं तरह की गतियाँ उत्पन्न करता हैं, जिन्हें क्रमानुकुंचन गतियाँ कहते हैं। इन गतियों के कारण भोजन विभिन्न
स्त्रावों से अच्छी तरह मिल जाता हैं और पाचन की क्रिया सरल हो जाती हैं। अब भोजन
को काइल कहते हैं। यकृत-अग्नाशयी नलिका द्वारा पित्त, अग्नाशय
रस और आंत्रीय रस छोटी आंत में छोडे जाते हैं।
अग्नाशयी रस के घटक - ट्रिप्सिनोजन, काइमोट्रिप्सिनोजन, प्रोकार्बोक्सीपेप्टीडेज,
एमाइलेज, लाइपेज व न्यूक्लीऐज।
पित्त रस के घटक - पित्त वर्णक (बिल्यूरूबिन व बिलिवरडीन), पित्त लवण, कोलेस्ट्रॉल व फॉस्फोलिपिड।
आंत्रिय म्यूकोसा द्वारा स्त्रावित एन्टेरोकाइनेज
द्वारा ट्रिप्सिनोजन को ट्रिप्सिन में परिवर्तित किया जाता हैं। यह सक्रिय
ट्रिप्सिन अब अग्नाशयी रस के अन्य निष्क्रिय एंजाइम्स को सक्रिय करता हैं। पित्त
रस वसा के पायसीकरण को प्रेरित करता हैं। इसमें वसाा के बड़े अणुओं को तोड़कर छोटे
मिसेल कणों में बदला जाता हैं। पायसीकरण वसा का पाचन नहीं हैं, परंतु वसा के पाचन में सहायक हैं। आंत्रीय श्लेष्म उपकला में कलश
कोशिकायें होती हैं। जो श्लेष्मा का स्त्राव करती हैं। म्यूकोसा के ब्रश बॉर्डर
कोशिकाओं तथा कलश कोशिकाओं के स्त्राव आपस में मिलकर आंत्रीय रस अथवा सक्कस
इंटेरिकस बनाते हैं।
जैव
वृहद् अणुओं के पाचन की क्रिया मुख्यतया छोटी आंत के ग्रहणी भाग में होती हैं। इस प्रकार
निर्मित सरल पदार्थ छोटी आंत के मध्यांत्र व क्षुद्रांत्र भागों में अवशोषित होते
हैं। अपचित व अनअवशोषित पदार्थ बड़ी आंत में चले जाते हैं।
4. बडी आंत की भूमिका (Digestion in large intestine) -
बड़ी आंत में कोई महत्वपूर्ण पाचक क्रिया नहीं होती
हैं। इसके निम्न कार्य हैं-
(अ) कुछ जल, खनिज तथा औषधियों
का अवशोषण।
(ब) श्लेष्म का स्त्रावण कर अपचित उत्सर्जी पदार्थ
के कणों को चिपकाने और स्नेहक के द्वारा उनके बाह्य निकास को आसान बनाना।
अपचित
और अनावशोषित पदार्थों को मल कहते हैं। जो अस्थायी रूप् से मल त्यागने से पहले तक
मलाशय में रहता हैं। छोटी आंत के क्षुद्रांत्र भाग से अपचित व अनावशोषित पदार्थ
बड़ी आंत के सीकम भाग में इलियो सीकल वाल्व से होकर पहुँचते हैं। यह वाल्व उत्सर्जी
पदार्थों को ‘बेक फ्लो’ को रोकता हैं।
जठर आंत्रीय नाल का नियमन -
जठर-आंत्रीय पथ की क्रियाऐं विभिन्न अंगों के उचित
समन्वय के लिए तंत्रिका व हॉर्मोन के नियंत्रण से होती हैं। भोज्य पदार्थों को
देखने,
सँूघने व मुखगुहा में उपस्थिति के कारण लार व अन्य रसों का स्त्रवण
होता हैं। भोजन की मुखगुहा में उपस्थिति लार ग्रन्थियों को लार स्त्रावित करने के
लिए उद्दीपीत करती हैं। इसी प्रकार जठर व आंत्रीय रस भी तंत्रिका संकेतों से
उद्दीपीत होते हैं। आहारनाल की विभिन्न भागों की पेशियों की सक्रियता भी स्थानीय
एवं केन्द्रीय तंत्रिकाओं के नियमन द्वारा होता हैं। हॉर्मोनल नियंत्रण के अंदर
जठर और आंत्रीय म्यूकोसा से निकलने वाले हॉर्मोन पाचक रसों के स्त्रावण को
नियंत्रित करते हैं। जिनमें से कुछ निम्न हैं-
गेस्ट्रिन - आमाशय व
ग्रहणी से स्त्रावित होता हैं। यह हाइड्रोक्लोरिक अम्ल के स्त्रवण व जठरीय
ग्रंथियों को उद्दीपीत करता हैं।
सीक्रेटिन - यह ग्रहणी
के द्वारा स्त्रावित किया जाता हैं। इसे ‘फायरमैन ऑफ
इन्टेस्टाईन’ भी कहा जाता हैं, क्योंकि
यह हाइड्रोक्लोरिक अम्ल को उदासीन करता हैं। यह अग्नाशयी रस के तरल भाग के
स्त्रावण को भी प्रेरित करता हैं।
पैंक्रियोजाइमिन -
यह भी ग्रहणी द्वारा ही स्त्रावित किया जाता हैं। यह अग्नाशयी रस के एंजाइम्स के
स्त्रावण को प्रेरित करता हैं तथा अग्नाशयी रस के संश्लेषण को भी प्रेरित करता
हैं।
हीपेटोक्रिनिन - यह भी
ग्रहणी द्वारा स्त्रावित किया जाता हैं। यह यकृत में पित रस के संश्लेषण को
प्रेरित करता हैं।
कोलिसिस्टोकाइनिन -
यह भी ग्रहणी द्वारा ही स्त्रावित किया जाता हैं। यह यकृत एवं पिताशय दोनों को
पित्तरस स्त्रावित करने के लिए प्रेरित करता हैं।
गैस्ट्रिन इन्हिबिटरी पेप्टाइड -
यह भी ग्रहणी द्वारा ही स्त्रावित किया जाता हैं। यह आमाशय से गैस्ट्रिन के
स्त्रावण को संदमित करता हैं।
पचित उत्पादों का अवशोषण -
अवशोषण वह प्रक्रिया हैं, जिसमें पाचन से प्राप्त उत्पाद आंत्रीय म्यूकोसा से निकलकर रक्तीय लसिका
में प्रवेश करता हैं। अवशोषण सक्रिय, निष्क्रिय या सुसाध्य
परिवहन द्वारा हो सकता हैं। ग्लूकोज, अमीनो अम्ल, क्लोराइड आयन आदि की अल्प मात्रा सरल विसरण द्वारा रक्त में पहुँचती हैं।
इन पदार्थों का रक्त में पहुँचना सांद्रता प्रवणता पर निर्भर करता हैं। फ्रक्टोज व
कुछ अन्य अमीनों अम्लों का परिवहन वाहक अणुओं जैसे- सोडियम आयन की मदद से होता हैं,
इसे सुसाध्य परिवहन कहते हैं। जल का परिवहन परासरणी प्रवणता पर
निर्भर करता हैं। कुछ अमीनों अम्ल, ग्लूकोज व सोडियम आयन का
अवशोषण सक्रिय परिवहन द्वारा होता हैं, जिसमें ऊर्जा की
आवश्यकता होती हैं। वसीय अम्ल और ग्लिसरोल अविलेय होने के कारण रक्त में अवशोषित
नहीं हो पाते। सर्वप्रथम इन्हें सूक्ष्म बँूदों मिसेल में बदला जाता हैं। जिन पर
प्रोटीन का आवरण बनता हैं। प्रोटीन आस्तरित ये सूक्ष्म वसा गोलिकाऐं काइलोमाइक्रोन
कहलाती हैं। जिन्हें अंकुरों की लसिका वाहिनियां अवशोषित कर लेती हैं तथा अंत में
रक्त प्रवाह में छोड़ देती हैं।
पाचन तंत्र के विभिन्न भागों में
पदार्थों का अवशोषण -
1.मुखगुहा में अवशोषण - मुखगुहा में कुछ औषधियों का अवशोषण
होता हैं,
जो कि ओरल म्यूकोसा व जीभ की निचली सतह द्वारा किया जाता हैं।
2. आमाशय में अवशोषण - जल, सरल शर्करा,
एल्कोहॉल आदि का अवशोषण यहाँ होता हैं।
3. छोटी आँत में अवशोषण - यह पोषक तत्वों के अवशोषण का मुख्य
अंग हैं। यहाँ पाचन के अंतिम उत्पादों जैसे - ग्लूकोज, फ्रक्टोज, वसीय अम्ल, ग्लिसरोल,
अमीनों अम्ल, जल इत्यादि का अवशोषण होता हैं।
4. बड़ी आँत में अवशोषण - जल, कुछ खनिज
लवणों व औषधियों का अवशोषण यहाँ होता हैं।
स्वांगीकरण - अवशोषित
पदार्थ अंत में ऊत्तकों में पहुँचते हैं, जहाँ वे विभिन्न
क्रियाओं के उपयोग में लाए जाते हैं, इस प्रक्रिया को
स्वांगीकरण कहते हैं।
पाचन तंत्र के विकार -
1.पीलिया -
इसमें यकृत प्रभावित होता हैं तथा त्वचा व आँखें पित्त वर्णकों के जमा होने से
पीले रंग के दिखाई देते हैं।
2. प्रवाहिका/दस्त -
आंत्र की असामान्य गति की बारंबारता और मल का अत्यधिक पतला होना, प्रवाहिका कहलाता हैं। इसमें भोजन का अवशोषण घट जाता हैं।
3. कब्ज - कब्ज
में मल मलाशय में रूक जाता हैं और आंत्र की गतिशीलता अनियमित हो जाती हैं।
4. वमन -
यह आमाशय में संग्रहित पदार्थों की मुख से बाहर निकलने की क्रिया हैं, यह क्रिया मेड्युला ऑब्लोंगेटा में स्थित वमन केंद्र द्वारा नियंत्रित
होती हैं।
5. अपच -
इस स्थिति में भोजन पूरी तरह से नहीं पचता ओर पेट भरा-भरा सा महसूस होता हैं। इसका
कारण एंजाइम स्त्रवण में कमी, व्यग्रता, खाद्य विषाक्तता, अधिक भोजन करना, मसालेदार खाना होता हैं।
6. पेप्टिक अल्सर -
अधिक एचसीएल स्त्रावण के कारण आमाशय की भित्ति में छाले हो जाना।
7. पित्ताशय पथरी -
कोलेस्ट्रॉल के आधिक्य के कारण पित्ताशय में पथरी बन जाती हैं।
8. क्वाशिओरकर व मेरास्मस -
क्वाशिओरकर रोग में बालक कुपोषण के कारण मोटा हो जाता हैं व इंफेक्शन का खतरा बढ़
जाता हैं,
जबकि मेरास्मस रोग में बालक कुपोषण के कारण पतला हो जाता हैं। ये
दोनों हीे कुपोषण जनित रोग हैं, जो प्रोटीन की कमी से होते
हैं।
9. अपेंडिक्टिस -
जीवाण्वीय संक्रमण के कारण अपेंडिक्स में सूजन हो जाना।
Comments
Post a Comment