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उत्सर्जन तंत्र (Excretory system)

प्राणी उपापचयी अथवा अत्यधिक अंतःग्रहण जैसी क्रियाओं द्वारा अमोनिया, यूरिया, यूरिक अम्ल, कार्बनडाइऑक्साइड, जल और अन्य आयन जैसे सोडियम, पोटैसियम, क्लोरीन, फॉस्फेट, सल्फेट आदि का संचय करते हैं। प्राणियों द्वारा इन पदार्थों का पूर्णतया या आंशिक रूप से निष्कासन आवश्यक है। प्राणियों द्वारा उत्सर्जित होने वाले नाइट्रोजनी अपशिष्टों में मुख्य रूप से अमोनिया, यूरिया और यूरिक हैं। इनमें अमोनिया सर्वाधिक आविष (Toxic) है और इसके निष्कासन के लिए अत्यधिक जल की आवश्यकता होती है। यूरिक अम्ल कम आविष है और जल की कम मात्रा के साथ निष्कासित किया जा सकता है। अमोनिया के उत्सर्जन की प्रक्रिया को अमोनियोत्सर्ग  प्रक्रिया कहते हैं।

 

अनेक अस्थिल मछलियाँ, उभयचर और जलीय कीट अमोनिया उत्सर्जी प्रकृति के हैं। अमोनिया सरलता से घुलनशील है, इसलिए आसानी से अमोनियम आयनों के रूप में शरीर की सतह या मछलियों के क्लोम (Gill) की सतह से विसरण द्वारा उत्सर्जित हो जाते हैं। इस उत्सर्जन में वृक्क की कोई अहम भूमिका नहीं होती है। इन प्राणियों को अमोनियाउत्सर्जी (Ammonotelic) कहते हैं। स्थलीय आवास में अनुकूलन हेतु, जल की हानि से बचने के लिए प्राणी कम आविष नाइट्रोजनी अपशिष्टों जैसे यूरिया और यूरिक अम्ल का उत्सर्जन करते हैं। स्तनधारी, कई स्थली उभयचर और समुद्री मछलियाँ मुख्यतः यूरिया का उत्सर्जन करते हैं और यूरियाउत्सर्जी (Ureotelic) कहलाते हैं। इन प्राणियों में उपापचयी क्रियाओं द्वारा निर्मित अमोनिया को यकृत द्वारा यूरिया में परिवर्तित कर रक्त में मुक्त कर दिया जाता है, जिसे वृक्कों द्वारा निस्यंदन के पश्चात उत्सर्जित कर दिया जाता है। कुछ प्राणिके वृक्कों की आधात्री (matrix) में अपेक्षित परासरणता को बनाए रखने के लिए यूरिया की कुछ मात्रा रह जाती है। सरीसृपों, पक्षियों, स्थलीय घोंघों तथा कीटों में नाइट्रोजनी अपशिष्ट यूरिक अम्ल का उत्सर्जन, जल की कम मात्रा के साथ गोलिकाओं या पेस्ट के रूप में होता है और ये यूरिकअम्लउत्सर्जी (Uricotelic) कहलाते हैं।

 

मानव उत्सर्जन तंत्र (Human excretory system)


Human Excretory System
Human Excretory System


 मनुष्यों में उत्सर्जी तंत्र एक जोड़ी वृक्क, एक जोड़ी मूत्र नलिका, एक मूत्राशय और एक मूत्र मार्ग का बना होता है। वृक्क सेम के बीज की आकृति के गहरे भूरे लाल रंग के होते हैं तथा ये अंतिम वक्षीय और तीसरी कटि कशेरुका के समीप उदर गुहा में आंतरिक पृष्ठ सतह पर स्थित होते हैं। वयस्क मनुष्य के प्रत्येक वृक्क की लम्बाई 10-12 सेमी., चौड़ाई 5-7 सेमी., मोटाई 2-3 सेमी. तथा भार लगभग 120-170 ग्राम होता है। वृक्क के केंद्रीय भाग की भीतरी अवतल (concave) सतह के मध्य में एक खांच होती है, जिसे हाइलम (Hylum) कहते हैं। इससे होकर मूत्र-नलिका, रक्त वाहिनियाँ और तंत्रिकाएं प्रवेश करती हैं। हाइलम के भीतरी ओर कीप के आकार का रचना होती है जिसे वृक्कीय श्रोणि (pelvic) कहते हैं तथा इससे निकलने वाले प्रक्षेपों (projection) को चषक (calyx) कहते हैं। वृक्क की बाहरी सतह पर दृढ़ संपुट होता है। वृक्क में दो भाग होते हैं- बाहरी वल्कुट (cortex) और भीतरी मध्यांश (medulla)। मध्यांश कुछ शंक्वाकार पिरामिड (medulla pyramid) में बँटा होता है जो कि चषकों में फैले रहते हैं। वल्कुट मध्यांश पिरामिड (पिंडों) के बीच फैलकर वृक्क स्तंभ बनाते हैं, जिन्हें बरतीनी-स्तंभ (Columns of Bertini) कहते हैं |

 

प्रत्येक वृक्क में लगभग 10 लाख जटिल नलिकाकार संरचना वृक्काणु (Nephron) पाई जाती हैं जो क्रियात्मक इकाइयाँ हैं। प्रत्येक वृक्काणु के दो भाग होते हैं। जिन्हें गुच्छ (Glomerulus) और वृक्क नलिका कहते हैं। गुच्छ वृक्कीय धमनी की शाखा अभिवाही धमनिकाओं (afferent arteriole) से बनी केशिकाओं (capillary) का एक गुच्छ है।


Kidney
Kidney


ग्लोमेरूलस से रक्त अपवाही धमनिका (efferent arteriole) द्वारा ले जाया जाता है। वृक्क नलिका दोहरी झिल्ली युक्त प्यालेनुमा बोमेन संपुट से प्रारंभ होती है, जिसके भीतर गुच्छ होता है। गुच्छ और बोमेन संपुट मिलकर मेल्पीगीकाय अथवा वृक्क कणिका (कार्पसल) बनाते हैं। बोमेन संपुट से एक अति कुंडलित समीपस्थ संवलित नलिका (PCT) प्रारंभ होती है, इसके बाद वृक्काणु में हेयर पिन के आकार का हेनले-लूप (Henley’s loop) पाया जाता है, जिसमें आरोही व अवरोही भुजा होती है। आरोही भुजा से एक ओर अति कुंडलित नलिका, दूरस्थ संवलित नलिका (DCT) प्रारंभ होती है। अनेक वृक्काणुओं की दूरस्थ संवलित नलिकाएं एक सीधी संग्रह नलिका में खुलती हैं। अनेक संग्रह नलिकाएं मिलकर चषकों के बीच स्थित मध्यांश पिरामिड से गुजरती हुई वृक्कीय श्रोणि में खुलती हैं। वृक्काणु की वृक्क कणिका, समीपस्थ संवलित नलिका, दूरस्थ संवलित नलिका आदि वृक्क के वल्कुट भाग में, जबकि हेनले-लूप मध्यांश में, स्थित होते हैं। अधिकांश वृक्काणु के हेनले-लूप बहुत छोटे होते हैं और मध्यांश में बहुत कम ध्ँसे रहते हैं ऐसे वृक्काणुओं को वल्कुटीय वृक्कक कहते हैं।

कुछ वृक्काणुओं के हेनले-लूप बहुत लंबे होते हैं तथा मध्यांश में काफी गहराई तक ध्ंसे रहते हैं। इन्हें सान्निध्य मध्यांश वृक्काणु (Juxta-medullary nephron) कहते हैं गुच्छ से निकलने वाली अपवाही धमनिका, वृक्कीय नलिका के चारों ओर सूक्ष्म केशिकाओं का जाल बनाती हैं,   जिसे परिनालिका केशिका जाल कहते हैं। इस जाल से निकलने वाली एक एक सूक्ष्म वाहिका हेनले-लूप के समानांतार चलते हुए यू’ (U) आकार की संरचना वासा रेक्टा बनाती है। वल्कुटीय वृक्काणु में वासा रेक्टा या तो अनुपस्थित या अत्यधिक हासित होती है।

 

 

मूत्र निर्माण (urine formation)

मूत्र निर्माण में 3 मुख्य प्रक्रियाएं सम्मिलित हैं –

गुच्छीय निस्यंदन, पुनःअवशोषण, स्त्रवण जो वृक्काणु के विभिन्न भागों में होता है। मूत्र निर्माण के प्रथम चरण में केशिकागुच्छ द्वारा रक्त का निस्यंदन होता है जिसे गुच्छ या गुच्छीय निस्यंदन कहते हैं। वृक्कों द्वारा प्रति मिनट औसतन 1100-1200 मिली. रक्त का निस्यंदन किया जाता है जो कि हृदय द्वारा एक मिनट में निकाले गए रक्त के 1/5 वें भाग के बराबर होता है।

 

गुच्छ की केशिकाओं का रक्त-दाब रुधिर का 3 परतों में से निस्यंदन करता है। ये तीन परते हैं गुच्छ की रक्त केशिका की आंतरिक उपकला, बोमेन संपुट की उपकला तथा इन दोनों पर्तों के बीच पाई जाने वाली आधर झिल्ली। बोमेन संपुट की उपकला कोशिकाएं पदाणु (podocytes) कहलाती हैं, जो विशेष प्रकार से विन्यासित होती हैं, जिससे कुछ छोटे-छोटे अवकाश बीच में रह जाते हैं। इन्हें निस्यंदन खांच या खांच छिद्र (slit-pore) कहते हैं। इन झिल्लियों से रुधिर इतनी अच्छी तरह छनता है कि जिससे रुधिर के प्लाज्मा की प्रोटीन को छोड़कर प्लाज्मा का शेषभाग छन कर संपुट की गुहा में इकट्ठा हो जाता है। इसलिए इसे परा-निस्यंदन (ultra filteration) कहते हैं। वृक्कों द्वारा प्रति मिनट निस्यंदित की गई मात्रा गुच्छीय निस्यंदन दर (Glomerular Filtration Rate; GFR) कहलाती है।

 

एक स्वस्थ व्यक्ति में यह दर 125 मिली. प्रति मिनट अर्थात् 180 लीटर प्रति दिन है।  गुच्छ निस्यंदन की दर के नियमन के लिए वृक्कों द्वारा क्रियाविधि अपनाई जाती है। गुच्छीय आसन्न उपकरण द्वारा एक अति सूक्ष्म क्रियाविधि संपन्न की जाती है। यह विशेष संवेदी उपकरण अभिवाही तथा अपवाही धमनिकाओं के सम्पर्क स्थल पर दूरस्थ संवलित नलिका की केशिकाओं के रूपांतरण से बनता है। गुच्छ निस्यंदन दर में गिरावट इन आसन गुच्छ केशिकाओं को रेनिन के स्त्रवण के सक्रिय करती है जो वृक्कीय रुधिर का प्रवाह बढ़ाकर गुच्छ निस्यंदन दर को पुनः सामान्य कर देती है। प्रतिदिन बनने वाले निस्यंद के आयतन (180 लीटर प्रति दिन) की उत्सर्जित मूत्र (1.5 लीटर) से तुलना की जाए तो यह समझा जा सकता है कि 99 प्रतिशत निस्यंद को वृक्क नलिकाओं द्वारा पुनः अवशोषित किया जाता है जिसे पुनःअवशोषण कहते हैं। यह कार्य वृक्क नलिका की उपकला कोशिकाएं अलग-अलग खंडों में सक्रिय अथवा निष्क्रिय क्रियाविधि द्वारा करती हैं। उदाहरणार्थ निस्यंद पदार्थ जैसे ग्लूकोज, एमीनो अम्ल, Na इत्यादि सक्रिय रूप से परिवहन से पुनरावशोषित कर लिए जाते हैं, जबकि नाइट्रोजनी निष्क्रिय रूप से अवशोषित होते हैं।

वृक्काणु के प्रारंभिक भाग में जल का पुनरावशोषण निष्क्रिय क्रिया द्वारा होता है मूत्र निर्माण के दौरान नलिकाकार कोशिकाएं निस्यंद में H+,  K+ और अमोनिया जैसे पदार्थों को स्त्रावित करती हैं। नलिकाकार स्त्रवण भी मूत्र निर्माण का एक मुख्य चरण है; क्योंकि यह शारीरिक तरल आयनी व अम्ल-क्षार संतुलन को बनाए रखता है।

 

 

वृक्क नलिका के विभिन्न भागों के कार्य –

समीपस्थ संवलित नलिका (PCT) :

यह नलिका सरल घनाकार ब्रुश बार्डर उपकला से बनी होती है जो पुनरावशोषण के लिए सतह क्षेत्र को बढ़ाती है। लगभग सभी आवश्यक पोषक तत्व, 70-80 प्रतिशत वैद्युत-अपघट्य और जल का पुनः अवशोषण इसी भाग द्वारा होता है। समीपस्थ संवलित नलिका शारीरिक तरलों के पीएच तथा आयनी संतुलन को इससे बनाए रखने के लिए H+, अमोनिया और K+ आयनों का निस्यंद में स्त्रवण और HCO3- का पुनरावशोषण करती हैं।

 

हेनले-लूप (Henley’s loop) :

आरोही भुजा में न्यूनतम पुनरावशोषण होता है। यह भाग मंध्यांश में उच्च अंतराकाशी तरल की परासणता के नियमन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हेनले-लूप की अवरोही भुजा जल के लिए अपारगम्य होती है, परंतु वैद्युत अपघट्य के लिए सक्रियता से या धीरे-धीरे पारगम्य होती है। यह नीचे की ओर जाते हुए निस्यंद को सांद्र करती है। आरोही भुजा जल के लिए अपारगम्य होती है; लेकिन वैद्युत अपघट्य का अवशोषण सक्रिय या निष्क्रिय रूप से करती है। जैसे-जैसे सांद्र निस्यंद ऊपर की ओर जाता है, वैसे-वैसे वैद्युत अपघट्य के मध्यांश तरल में जाने से निस्यंद तनु (dilute) होता जाता है।

 

दूरस्थ संवलित नलिका (DCT) :

विशिष्ट परिस्थितियों में Na+ और जल का कुछ पुनरावशोषण इस भाग में होता है। दूरस्थ संवलित नलिका रक्त में सोडियम-पोटैसियम का संतुलन तथा pH बनाए रखने के लिए बाइकार्बोनेटस का पुनरावशोषण एवं H+, K+  और अमोनिया का चयनात्मक स्त्रवण करती है।

 

संग्रह नलिका (Collecting duct) :

 यह लंबी नलिका वृक्क के वल्कुट से मध्यांश के आंतरिक भाग तक फैली रहती है। मूत्र को आवश्यकतानुसार सांद्र करने के लिए जल का बड़ा हिस्सा इस भाग में अवशोषित किया जाता है। यह भाग मध्यांश की अंतरकाशी की परासरणता को बनाए रखने के लिए यूरिया के कुछ भाग को वृक्क मध्यांश तक ले जाता है। यह pH के नियमन तथा H+ और K+  आयनों के चयनात्मक स्त्रवण द्वारा रक्त में आयनों का संतुलन बनाए रखने में भी भूमिका निभाता है।

 

 

निस्यंद (छनित) को सांद्रण करने की क्रियाविधि –

स्तनधारी सांद्रित मूत्र का उत्पादन करते हैं। इस कार्य में हेनले-लूप और वासा रेक्टा महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हेनले-लूप की दोनों भुजाओं में निस्यंद का विपरीत दिशाओं में प्रवाह होता है, जिससे प्रतिधारा उत्पन्न होती है। वासा रेक्टा की दोनों भुजाओं में रक्त का बहाव भी प्रतिधारा प्रतिरूप (पैटर्न) में होता है। हेनले-लूप व वासा रेक्टा के बीच की नजदीकी तथा उनमें प्रतिधारा मध्यांशी अंतराकाश (मेडुलरी इंटरटिशियम) के परासरण दाब को विशेष प्रकार से नियमित करती है। परासरण दाब मध्यांश के बाहरी भाग से भीतरी भाग की ओर लगातार बढ़ता जाता है, जैसे कि वल्कुट की ओर 300 mOsm/लीटर से आंतरिक मध्यांश में लगभग 1200 mOsm / लीटर । यह प्रवणता सोडियम क्लोराइड तथा यूरिया के कारण बनती है। NaCl का परिवहन हेनले-लूप की आरोही भुजा द्वारा होता है। जिसे हेनले-लूप की अवरोही भुजा के साथ विनमित किया है। सोडियम क्लोराइड, अंतराकाश को वासा रेक्टा की आरोही भुजा द्वारा लौटा दिया जाता है। इसी प्रकार यूरिया की कुछ मात्रा हेनले-लूप के पतले आरोही भाग में विसरण द्वारा प्रविष्ट होती है जो संग्रह नलिका द्वारा अंतराकाशी को पुनः लौटा दी जाती है। ऊपर वर्णित पदार्थों का परिवहन, हेनले-लूप तथा वासा रेक्टा की विशेष व्यवस्था द्वारा सुगम बनाया जाता है जिसे प्रतिधारा क्रियाविधि कहते हैं। यह क्रियाविधि मध्यांश के अंतराकाशी की प्रवणता को बनाए रखती है।

इस प्रकार की अंतराकाशीय प्रवणता संग्रह नलिका द्वारा जल के सहज अवशोषण में योगदान करती है और निस्यंद का सांद्रण करती है। हमारे वृक्क प्रारंभिक निस्यंद की अपेक्षा लगभग चार गुना अधिक सांद्र मूत्र उत्सर्जित करते हैं। यह निश्चित ही जल के हृास को रोकने की मुख्य क्रियाविधि है। वृक्क क्रियाओं का नियमन वृक्कों की क्रियाविधि का नियंत्राण और नियमन हाइपोथैलेमस के हार्मोन की पुनर्भरण क्रियाविधि सान्निध्य गुच्छ उपकरण (Juxtaglomerular Apparatus; JGA) और कुछ सीमा तक हृदय द्वारा होता है। शरीर में उपस्थित परासरण ग्राहियाँ रक्त आयतन/शरीर तरल आयतन और आयनी सांद्रण में बदलाव द्वारा सक्रिय होती हैं। शरीर से मूत्र द्वारा जल का अत्यधिक हृास (मूत्रलता/डाइयूरेसिस) इन ग्राहियों को सक्रिय करता है, जिससे हाइपोथैलेमस प्रतिमूत्रल हार्मोन (एंटीडाइयूरेटि हार्मोन) (Anti-diuretic Hormone; ADH) और न्यूरोहाइपोपफाइसिस को वैसोप्रेसिन के स्त्राव हेतु प्रेरित करता है। एडीएच नलिका के अंतिम भाग में जल के पुनरावशोषण को सुगम बनाता है और मूत्रलता को रोकता है। शरीर तरल के आयतन में वृद्धि परासण ग्रहियों को निष्क्रिय कर देती है और पुनर्भरण को पूरा करने के लिए एडीएच के स्त्रवण का निरोध् करती है। एडीएच वृक्क के कार्यों को रक्त वाहिनियों पर संकुचनी प्रभावों द्वारा भी प्रभावित करता है। इससे रक्त दाब बढ़ जाता है। रक्तदाब बढ़ जाने से गुच्छ प्रवाह बढ़ जाता है और इससे जीएपफआर बढ़ जाता है। जेजीए की जटिल नियमनकारी भूमिका है। गुच्छीय रक्त प्रवाह/गुच्छीय रक्त दाब/GFR में गिरावट से जेजीए कोशिकाएं सक्रिय होकर रेनिन को मुक्त करती है। रेनिन रक्त में उपस्थित एंजिओटेंसिनोजन को एंजियोटेंसिन-प्रथम और बाद में एंजियोटेंसिन-द्वितीय में बदल देती है। एंजियोटेंसिन द्वितीय एक प्रभावकारी वाहिका संकीर्णक (Vaso-conctricator) है जो गुच्छीय रुधिर दाब तथा GFR को बढ़ा देता है। एंजोयोटेंसिन द्वितीय अधिवृक्क वल्कुट को एल्डोस्टीरोन हार्मोन स्त्रवण के लिए प्रेरित करता है। एल्डोस्टीरोन के कारण नलिका के दूरस्थ भाग में Na+ तथा जल का पुनरावशोषण होता है। इससे भी रक्त दाब तथा जीएपफआर में वृद्वि होती है। यह जटिल क्रियाविधि रेनिन एंजियोटेंसिन क्रियाविधि कहलाती है। हृदय के आलिन्दो में अधिक रुधिर के बहाव से अलिंदीय नेट्रियेरेटिक कारक (ANF) स्त्रावित होता है। ANF से वाहिकाविस्फारण (रक्त वाहिकाओं का विस्फारण) होता है जिससे रक्त दाब कम हो जाता है। इस प्रकार से ANF क्रियाविधि रेनिन-एंजियोटेंसिन क्रियाविधि पर नियंत्रक का काम करता है।

 

मूत्रण (Micturition)

वृक्क द्वारा निर्मित मूत्र अंत में मूत्राशय में जाता है और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र द्वारा ऐच्छिक संकेत दिए जाने तक संग्रहित रहता है। मूत्राशय में मूत्र भर जाने पर उसके फैलने के फलस्वरूप यह संकेत उत्पन्न होता है। मूत्राशय भित्ति से इन आवेगों को केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में भेजा जाता है। केंद्रीय तंत्रिका तंत्र से मूत्राशय की चिकनी पेशियों के संकुचन तथा मूत्रशयी-अवरोधिनी के शिथिलन हेतु एक प्रेरक संदेश जाता है, जिससे मूत्र का उत्सर्जन होता है। मूत्र उत्सर्जन की क्रिया मूत्रण कहलाती है और इसे संपन्न करने वाली तंत्रिका क्रियाविधि मूत्रण-प्रतिवर्त कहलाती है। एक वयस्क मनुष्य प्रतिदिन औसतन 1-1.5 लीटर मूत्र उत्सर्जित करता है।

 

मूत्र एक विशेष गंध् युक्त जलीय तरल है, जो रंग में हल्का पीला तथा थोड़ा अम्लीय (pH-6) होता है। औसतन प्रतिदिन 25-30 ग्राम यूरिया का उत्सर्जन होता है। विभिन्न अवस्थाएं मूत्र की विशेषताओं को प्रभावित करती हैं। मूत्र का विश्लेषण वृक्कों के कई उपापचयी विकारों और उनके ठीक से कार्य न करने को वुफसंक्रिया जैसे रोग निदान में मदद करता है। उदाहरण के लिए मूत्र में ग्लूकोस की उपस्थिति (ग्लाइकोसूरिया) तथा कीटोन काय की उपस्थिति (कीटोनयूरिया) मधुमेह (डाइबिटीज मेलीटस) के लक्षण है|

 

 

 उत्सर्जन में अन्य अंगों की भूमिका –

वृक्कों के अलावा फुफ्फुस, यकृत और त्वचा भी उत्सर्जी अपशिष्टों को बाहर निकालने में मदद करते हैं। हमारे फेंफेड़े प्रतिदिन भारी मात्रा में CO2 (लगभग 200ml/मिनट) और जल की पर्याप्त मात्रा का निष्कासन करते हैं। हमारे शरीर की सबसे बड़ी ग्रंथि यकृत पित्तका स्त्राव करती है जिसमें बिलिरूबिन, बिलीविरडिन, कॉलेस्ट्रॉल, निम्नीकृत स्टीरॉयड हार्मोन, विटामिन तथा औषध् आदि होते हैं। इन अधिकांश पदार्थों को अंततः मल के साथ बाहर निकाल दिया जाता है।

 

त्वचा में उपस्थित स्वेद ग्रंथियाँ तथा तैल-ग्रंथियाँ भी स्त्राव द्वारा कुछ पदार्थों का निष्कासन करती हैं। स्वेद ग्रंथि द्वारा निकलने वाला पसीना एक जलीय द्रव है, जिसमें नमक, कुछ मात्रा में यूरिया, लैक्टिक अम्ल इत्यादि होते हैं। हालाकि पसीने का मुख्य कार्य वाष्पीकरण द्वारा शरीर सतह को ठंडा रखना है; लेकिन यह ऊपर बताए गए कुछ पदार्थों के उत्सर्जन में भी सहायता करता है। तैल-ग्रंथियाँ सीबम द्वारा कुछ स्टेरोल, हाइड्रोकार्बन एवं मोम जैसे पदार्थों का निष्कासन करती हैं। ये स्त्राव त्वचा को सुरक्षात्मक तैलीय कवच प्रदान करते हैं। 

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