जापान के क्योटो (Kyoto) शहर में 11 दिसम्बर, 1997 को UNFCCC
(United Nations Framework Convention on Climate Change) द्वारा
प्रस्तावित क्योटो संधिपत्र (Kyoto Protocol) को 150 देशों ने स्वीकार किया हैं। यह एक
अंतर्राष्ट्रीय संधि (International Treaty) है जिसके
अंतर्गत औद्योगीकृत तथा विकासशील दोनों प्रकार के देशों पर यह बाध्यता (Binding) तथा नियंत्रण होगा कि वे अपने देश में ग्रीन हाउस गैसों (Green
House Gases; GHG) के उत्सर्जन (Emission) में
कमी करे तथा इस सम्बन्ध में आगे बनने वाले अंतर्राष्ट्रीय नियमों की पालना करें।
क्योटो
संधि की तत्काल लागू की गई धारा (Article) के अनुसार
संधिपत्र पर हस्ताक्षर करने वाले सभी राष्ट्र प्रथम प्रयास के रूप में, जिसकी अवधि 2008-2012 के मध्य थी, अपने देश में 1990 में ग्रीन हाउस गैसों का जो स्तर
था उसमें 5 प्रतिशत की कटौती करे। उदाहरण के लिए अगर अमुक
देश ‘अ’ में 1990
में ग्रीन हाउस गैसों का प्रतिशत वायुमण्डल के संगठन के अनुसार 1.00 प्रतिशत था तो 2008-2012 तक यह मात्रा घटकर 0.995 प्रतिशत हो जाये।
ज्ञातव्य है कि सर्वाधिक प्रमुख ग्रीन हाउस गैस CO2 है, जिसका उत्सर्जन मुख्य रूप से जीवाश्म ईंधन के
जलाने से होता है। संधिपत्र के अनुसार निम्नांकित गैसों को ग्रीन हाउस गैस माना
गया हैं- कार्बनडाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस
ऑक्साइड, हाइड्रोफ्लोरोकार्बन्स, परफ्लोरोकार्बन्स
तथा सल्फर हेक्साफ्लोराइड।
क्योटो संधि में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निम्नांकित
तीन लेख-पत्र (Instruments or written deeds) जारी किए हैं -
1.संयुक्त कार्यान्वन (Joint
Implementation; JI)
2. स्वच्छ विकास साधन (Clean Development
Mechanism; CDM)
3. अंतर्राष्ट्रीय उत्सर्जन व्यवसाय (International
Emission Trade; IET)
यहाँ
हम स्वच्छ विकास साधन (CDM) के बारे में थोड़ा विस्तार से
अध्ययन करेंगे। क्योटो संधिपत्र में कुल 28 धाराऐं प्रस्तावित
की गई हैं। इनमें स्वच्छ विकास साधन से संबंधित धारा 12 हैं।
इस धारा के अंतर्गत CDM को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया
हैं।
CDM एक ऐसा प्रोजेक्ट है, जो
दो देशों के मध्य सहयोग पर आधारित हैं। ये देश मिलकर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन
के संदर्भ में सहयोगपूर्ण कार्य करेंगे। इन दो देशों में से एक औद्योगीकृत तथा दूसरा
विकासशील हो सकता हैं। दोनों के सहयोग से विकसित देश में ग्रीन हाउस गैसों में कमी
करने में आने वाले व्यय को कम किया जा सकता है जबकि विकासशील देश में टिकाऊ या सतत
विकास (Sustainable development) हो सकता हैं।
सारांश
स्वरूप यह कहा जा सकता है कि CDM एक ऐसा अंतर्राष्ट्रीय
वैधानिक प्रस्ताव है जिसके अंतर्गत विश्व में विकास के दौरान पर्यावरण दूषित नहीं
हो। दूसरे शब्दों में विकास पूरी तरह स्वच्छ हो। यह स्वच्छता ग्रीन हाउस गैसों के
उत्सर्जन को निर्धारित स्तर पर रखकर बनाए रखी जा सकती है। ग्रीन हाउस गैसों के स्तर
को निम्न स्तर पर रखने के लिए इनका उत्सर्जन करने वाली गतिविधियों को कम करने का
प्रावधान हैं।
CDM से संबंधित क्योटो प्रोटोकोल में विश्व के सभी देशों को दो वर्गों यथा एनेक्स-Ⅰ (Annex-Ⅰ) तथा एनेक्स-Ⅱ (Annex-Ⅱ) में वर्गीकृत किया गया हैं।
एनेक्स-Ⅰ में वे देश सम्मिलित किये गये हैं जिन्होंने निर्धारित समय सीमा में ग्रीन
हाउस गैसों के स्तर में कमी करने के प्रस्ताव को स्वीकार किया हैं। ये अधिकतर
विकसित हैं। एनेक्स-Ⅱ में वे देश हैं, जिन्होंने CDM
के प्रति तो अपनी स्वीकृति दी है लेकिन ग्रीन हाउस गैसों के निश्चित मात्रा में कम
करने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं। ये भी धनी देश हैं, जो CDM गतिविधियों के लिए विकासशील देशों को आर्थिक
तथा तकनीकी सहायता प्रदान करेंगे।
नॉर्वे तथा भारत का CDM प्रोजेक्ट -
भारत में CDM प्रोजेक्ट को
प्रोन्नत (Promote) करने के लिए भारत तथा नॉर्वे के मध्य एक
करार किया गया हैं। भारत सरकार ने इस कार्य के सुचारू रूप से क्रियान्वन के लिए 2003 में नेशनल CDM ऑथोरिटी की स्थापना की। प्रस्तावित
प्रोजेक्ट के अंतर्गत प्रारम्भ में मुख्य रूप से जीन क्षेत्रों से संबंधित कार्य
विवरण बनाये जाना तय किया गया है, ये क्षेत्र हैं- उद्योग,
नवीकरणीय ऊर्जा स्त्रोत तथा परिवहन एवं अपशिष्ट प्रबंधन (Industries,
renewable power sources and transport & waste management) ।
भारतीय
प्रोजेक्ट ‘CDM इन इंडिया’
के निर्माण में FICCI का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं। CDM अंतर्राष्ट्रीय
स्तर पर स्वच्छ पर्यावरण की उपलब्धता हेतु एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रस्ताव है
जिसकी वर्तमान परिस्थितियों में सबसे अधिक आवश्यकता हैं।
CDM प्रोजेक्ट मुख्यतः वैश्विक तापन के
दुष्प्रभावों से बचने के लिए बनाया गया हैं। इसकी मुख्य विशेषता है कि हरित गृह
गैसों में उपस्थित कार्बन का व्यावसायिक उपयोग किया जाये जिससे पर्यावरण भी शुद्ध
हो जाये तथा कार्बन युक्त गैसों के उपयोग से औद्योगिक उत्पादन भी बढ़ जाये।
CDM के समान ही यूरोपियन यूनियन (European Union) ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर
पर प्रथम ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन व्यापारिक तंत्र (Green House Gas
Emission Trade System) के गठन का प्रस्ताव किया था। यह कार्य योजना
वर्ष 2005 से प्रभावी होने को थी। इस योजना के अंतर्गत विशाल
कारखानों तथा शक्ति गृहों द्वारा उत्सर्जित कार्बनडाईऑक्साइड की मात्रा को
नियंत्रित किया जायेगा। योजनान्तर्गत जो कारखाने अपने निर्धारित कोटा से अधिक
कार्बनडाईऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं वे उन कारखानों से उत्सर्जन अधिकार क्रय कर
सकेंगे जो निर्धारित कोटा से कम गैस उत्सर्जित करते हैं। यह व्यापार यूरोपियन
यूनियन के 15 देशों के मध्य संभव होगा।
यूरोपियन यूनियन के देशों के मध्य बनी इस उत्सर्जन
व्यापार नीति का ही वृहद् प्रारूप CDM के अंतर्गत
क्योटो संघ में पारित किया गया। यूरोपियन यूनियन के देश उक्त नीति के अंतर्गत वर्ष
2010 तक कार्बनडाईऑक्साइड
की 4.7 प्रतिशत की कटौती करेंगे जबकि क्योटो
प्रोटोकोल के अंतर्गत वर्ष 2008-2012 की अवधि के मध्य 1990 के स्तर में 5 प्रतिशत की कमी करेंगे।
एक
रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2012 तक यूरोपीय संघ का कार्बन
उत्सर्जन व्यवसाय 1.8 बिलियन यूरा वार्षिक होने की संभावना
थी। शर्तों के अनुसार प्रारंभिक वर्ष 2005 में एक टन कार्बन
गैस का मूल्य 5 यूरो होगा जा वर्ष 2012
में 20 यूरो प्रति टन होना चाहिए था।
ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन व्यापारिक तंत्र की तर्ज पर
क्योटो प्रोटोकॉल से संबंधित देशों में कार्बनडाईऑक्साइड की मात्रा को नियंत्रित
किया जायेगा तथा उन्हें अपने कार्बन ट्रेडिंग के अधिकार को बेचने की अनुमति होगी।
इससे कार्पोरेट सेक्टर को भारी मुनाफा होगा। वे प्रदूषण नियंत्रण की लागत कम करके
अपना अधिक दूसरों को बेचकर भारी लाभ कमाने की स्थिति में होंगे।
CDM के ड्राफ्ट को देखकर यह कहा जा सकता है कि विश्व समुदाय व पर्यावरण
उन्नयन की दृष्टि से यह नीति पत्र अत्यन्त महत्वपूर्ण एवं प्रभावी हैं। अतः विश्व
स्तर पर क्योटो प्रोटोकोल के लिए उचित पहल की आवश्यकता प्रतिपादित की जाती हैं।
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