एम.आर.आई. (Magnetic Resonance Imaging; MRI) तकनीक की खोज का श्रेय फेलिक्स ब्लॉक (Felix Bloch) एवं एडवर्ड एम. परसेल (Edward M. Purcell) को जाता है, जिन्हें इसके लिए 1952 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। चिकित्सा विज्ञान में इसका उपयोग रेमन्ड दैमेडियन (Raymond Damadian) द्वारा प्रारंभ किया गया।
यह सी. टी. स्कैन से भी अधिक श्रेष्ठ तथा निरापद परीक्षण तकनीक है जिसमें मरीज की किसी भी तरह के आयनकारी विकिरणों जैसे – X-किरणों से उद्भासित नहीं किया जाता है। इस विधि से अंगों या ऊत्तकों के अत्यधिक स्पष्ट त्रिविमीय चित्र प्राप्त होते है। एम. आर. आई. तकनीक नाभिकीय मैग्नेटिक रेजोनेन्स के सिद्धांत पर कार्य करती है। इसमें अत्यधिक प्रबल चुम्बकीय क्षेत्र तथा रेडियो तरंगों के वातावरण में उत्पन्न हाइड्रोजन परमाणुओं के केन्द्रकों (Nuclei) के विद्युत आवेश व लघु चुम्बकीय गुणों को उपयोग में लाया गया है। शरीर में प्रोटोन्स के स्रोत के रूप में हाइड्रोजन परमाणुओं का उपयोग होता हैं, जो कि जल के अणुओं में पाए जाते हैं। एम.आर.आई. परीक्षण में मरीज को लगभग दो मीटर चौड़े कक्ष में लिटा दिया जाता है। यह कक्ष एक विशाल एवं बेलनाकार विद्युत चुम्बकों से घिरा रहता है जो कि अल्प समयावधि में शक्तिशाली चुम्बकीय क्षेत्र तथा तरंगें उत्पन्न करता हैं। इस चुम्बकीय प्रभाव के कारण मरीज के ऊत्तकों के हाइड्रोजन केन्द्रक (प्रोटोन्स) सक्रिय होकर रेडियों संकेत उत्पन्न करते हैं।
इन संकेतों को कम्प्यूटर द्वारा ग्रहण कर विश्लेषित किया जाता है व इनसे मरीज के शरीर की एक पतली काट के संगत चित्र प्राप्त किया जाता है। एम. आर. आई. से प्राप्त चित्र सी. टी. स्कैन की तुलना में अधिक उत्कृष्ट तथा स्पष्ट विभेदन (Contrast) दर्शाने वाले होते हैं। इससे किसी भी तल में चित्र प्राप्त किये जाने संभव हैं। यद्यपि एम. आर. आई. एक महंगी परीक्षण तकनीक है, किन्तु यह मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु की जाँच व अध्ययन में अत्यन्त उपयोगी हैं। इससे श्वेत द्रव्य तथा धूसर द्रव्य में भी स्पष्ट विभेदन किया जा सकता हैं।
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