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मेण्डल के आनुवंशिकता के नियम (Mendel’s Laws of Inheritance)

 मानव में लक्षणों की वंशागति के नियम इस बात पर आधारित है कि माता एवं पिता दोनों ही समान मात्रा में आनुवंशिक पदार्थ को संतति में स्थानांतरित करते है। अर्थात् प्रत्येक लक्षण पिता और माता के डीएनए से प्रभावित हो सकते है।

ग्रीगोर मेण्डल (Gregor Mendel) ने उद्यान मटर के पौधें में सात वर्षों (1856 से 1863 तक) संकरण के प्रयोग किए तथा उनके आधार पर जीवों की वंशागति के नियमों को प्रतिपादित किया। इसी कारण मेंडल को आनुवंशिकी का जनक कहा जाता है।


मेण्डल ने अपने प्रयोग के लिए मटर के पौधे को ही क्यों चुना ?

  • मटर के पौधे को आसानी से उगाया और रख-रखाव किया जा सकता है।
  • मटर के पौधें में स्वाभाविक रूप से स्व-परागण होता है, लेकिन पर-परागण भी किया जा सकता है।
  • यह एक वार्षिक पौधा है, इसलिए कम समय में ही कई पीढ़ियों का अध्ययन किया जा सकता है।
  • इसमें  कई विपरीत लक्षण होते हैं।


मेण्डल ने वंशानुक्रम के नियमों के निर्धारित करने के लिए 2 मुख्य प्रयोग किए :-

1. एक संकर संकरण :-

इस प्रयोग में मेण्डल ने विपरीत गुणों वाले दो मटर के पौधे लिए और उनके मध्य संकरण करवाया। उन्होंने पाया कि पहली पीढ़ी की संतानें लंबी थी और उन्होंने इसे F1 संतति कहा। फिर उन्होंने F1 संतति के पौधों को आपस में संकरित किया, जिससे उन्हें 3:1 के अनुपात में लंबे और बौने पौधे प्राप्त हुए। इसी प्रयोग के आधार पर मेण्डल ने प्रभाविता का नियम एवं विसंयोजन का नियम प्रतिपादित किया।


2. द्वि संकर संकरण :-

इस प्रयोग में मेण्डल ने दो लक्षणों पर विचार किया, जिनमें से प्रत्येंक में दो एलील थे। उन्होंने झुर्रीदार-हरे बीज और गोल-पील बीजों का संकरण करवाया और देखा कि पहली पीढ़ी की सभी संतति गोल-पीली थी। इसका मतलब यह था कि प्रमुख लक्षण गोल आकार और पीला रंग थे।

इसके बाद उन्होंने F1 संतति को स्व परागित किया और 4 अलग-अलग लक्षण प्राप्त किए - गोल-पीला, गोल-हरा, झुर्रीदार-पीला और झुर्रीदार-हरा क्रमशः 9:3:3:1 के अनुपात में। इसी के आधार पर मेण्डल ने स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम प्रतिपादित किया।

द्वि संकर संकरण का जीनोटाइप अनुपात 1:2:2:4:1:2:1:2:1 होता है।



मेण्डल के वंशागति के नियम :-

1. प्रभाविता का नियम (Law of Dominance) :-

इस नियम के अनुसार लक्षणों का निर्धारण कारक (जिन्हें अब जीन के नाम से जाना जाता है) नामक विविक्त इकाइयों द्वारा होता है। ये कारक जोड़ों में होते है।

यदि कारक जोड़ों के दो सदस्य असमान हों तो इनमें से एक कारक दूसरे कारक पर प्रभावी हो जाता है अर्थात् एक ‘प्रभावी’ और दूसरा ‘अप्रभावी’ होता है। F1 में केवल प्रभावी लक्षण (लम्बापन) का प्रकट होना और अप्रभावी लक्षण (बौनापन) का प्रकट नही होना; प्रभाविता के नियम द्वारा समझा जा सकता है।

जब मेंडल ने शुद्ध लंबे और शुद्ध बौने मटर के पौधे के मध्य क्रॉस करवाया, तो प्रथम संतति पीढ़ी में केवल लंबे मटर के पौधे ही प्राप्त हुए। सहप्रभाविता और अपूर्ण प्रभाविता इस नियम के अपवाद है।


2. विसंयोजन का नियम (Law of Segregation) :-

इस नियम का आधार यह है कि अलील आपस में घुलमिल नहीं पाते और F2 पीढ़ी में दोनों लक्षणों की फिर से अभिव्यक्ति हो जाती है, भले ही F1 पीढ़ी में एक लक्षण प्रकट नहीं होता। यद्यपि जनकों में दोनों अलील विद्यमान होते हैं। युग्मक बनने के समय कारकों के एक जोड़े या अलील के सदस्य विसंयोजित हो जाते हैं और युग्मक को दो में से एक ही कारक प्राप्त होता है। इसी कारण इस नियम को युग्मको की शुद्धता का नियम भी कहा जाता है। समयुग्मजी जनक द्वारा उत्पन्न सभी युग्मक समान होते है, जबकि विषमयुग्मजी जनक दो प्रकार के युग्मक उत्पन्न करता है, जिनमें समान अनुपात में एक एक अलील होता है।

जब मेंडल ने F1 पीढ़ी का स्व परागण करवाया तब उसे F2 पीढ़ी में 3:1 के अनुपात में क्रमश: लंबे और बौने पौधे प्राप्त हुए।


3. स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment) :-

इस नियम के अनुसार जब किसी संकर में लक्षणों के दो जोड़े लिए जाते हैं, तो किसी एक जोड़े का लक्षण-विसंयोजन दूसरे जोड़े से स्वतंत्र होता है। अर्थात् एक लक्षण की वंशागति दुसरे लक्षण की वंशागति को प्रभावित नहीं करती है। 

मेंडल के द्वि संकर संकरण में F1 पीढ़ी में मटर के सभी बीज गोल-पीले प्राप्त हुए। जब मेंडल ने इस पीढ़ी का स्व परागण करवाया तो F2 पीढ़ी में 4 अलग-अलग लक्षण प्राप्त किए - गोल-पीला, गोल-हरा, झुर्रीदार-पीला और झुर्रीदार-हरा क्रमशः 9:3:3:1 के अनुपात में।

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