अर्द्धसूत्री विभाजन (Meiosis) शब्द ‘फार्मर व मूरे’ (Farmer & Moore) ने दिया। कोशिका विभाजन की वह विधि जिसमें एक कोशिका विभाजित होकर चार पुत्री कोशिकाएं बनाती है तथा प्रत्येक पुत्री कोशिका में गुणसूत्रों की संख्या पैतृक कोशिका से आधी होती हैं। अर्द्धसूत्री विभाजन कहलाता है।
अर्द्धसूत्री विभाजन द्विगुणित कोशिका में होता हैं। मिओसिस-Ⅰ में गुणसूत्रीय विभाजन नहीं होता हैं, इसमें केवल समजात गुणसूत्रों का पृथक्करण होता है। गुणसूत्रीय विभाजन मिओसिस-Ⅱ की पश्चावस्था-Ⅱ में होता हैं। अर्द्धसूत्री विभाजन में केन्द्रक विभाजन दो बार होता हैं, परन्तु गुणसूत्र विभाजन केवल एक बार (मिओसिस-Ⅱ के दौरान) होता हैं।
Meiosis |
1.मिओसिस-Ⅰ (Meiosis-Ⅰ) -
अ.पूर्वावस्था-Ⅰ (Prophase-Ⅰ) -
यह अर्द्धसूत्री विभाजन -Ⅰ की सबसे लंबी व जटिल प्रावस्था हैं, इसे निम्न उपप्रावस्थाओं में बांटा जाता हैं -
Ⅰ.लेप्टोटीन (Leptotene) -
इसमें क्रोमेटिन संघनन द्वारा गुणसूत्र का निर्माण होता हैं। यहां गुणसूत्र लंबे व पतले दिखते हैं। गुणसूत्र में गहरी अभिरंजित संरचनाऐं क्रोमोमीयर नजर आती हैं। गुणसूत्र लूप बनाते हैं, जिनके सिरे केन्द्रक झिल्ली से जुड़े रहते हैं। गुणसूत्रों की यह विशिष्ट व्यवस्था ‘गुलदस्ता प्रावस्था’ कहलाती हैं।
Ⅱ. जाइगोटीन (Zygotene) -
इस प्रावस्था के दौरान समजात गुणसूत्रों का युग्मन होता हैं। गुणसूत्रों के प्रत्येक समजात युग्म में एक गुणसूत्र माता के अंडे से, जिसे मातृक गुणसूत्र कहते हैं तथा दूसरा गुणसूत्र पिता के शुक्राणु से आता हैं, को पैतृक गुणसूत्र कहते हैं। गुणसूत्रों का यह युग्मन ‘सिनेप्सिस’ कहलाता है तथा ये युग्मित गुणसूत्र द्विसंयोजी (Bivalent) होते हैं। युग्म के ये समजात गुणसूत्र लंबाई में समान होते हैं तथा समान क्रम में समान जीन वहित करते हैं। प्रत्येक द्विसंयोजी के बीच वाले भाग में Synaptonemal complex पाये जाते हैं, जो डीएनए व प्रोटीन की तीन परतों से मिलकर बनता हैं। कोशिका में द्विसंयोजी की संख्या अगुणित गुणसूत्रों की संख्या के बराबर होती हैं।
Ⅲ. पेकाइटीन (Pecytene) -
द्विसंयोजी का प्रत्येक गुणसूत्र दो क्रोमेटिड्स से मिलकर बनता हैं। एक गुणसूत्र के दो क्रोमेटिड्स को सिस्टर क्रोमेटिड (Sister Chromatid) कहते हैं तथा समजात गुणसूत्रों के अलग-अलग गुणसूत्रों के क्रोमेटिड को नॉन-सिस्टर क्रोमेटिड (Non-sister Chromatid) कहते हैं।
समजात गुणसूत्र के जोड़े के चारों क्रोमेटिड्स को टेट्रेड (Tetrad) या चतुष्क कहते हैं। इस प्रावस्था की पहचान पुनः संयोजी नॉड्यूल्स के प्रकट होने से होती हैं। दो समजात गुणसूत्रों के बीच आनुवंशिक पदार्थ के विनिमय को जीन विनिमय कहते हैं, जो रिकॉम्बिनेज एंजाइम की सहायता से होता हैं। जीन विनिमय को डॉर्लिन्गटन (Darlington) ने ब्रेकेज व रियूनियन सिद्धांत (Breakage and reunion theory) से समझाया जिसके अनुसार एण्डोन्यूक्लिएज व डीएनए लाइगेज एंजाइम जीन विनिमय के लिए आवश्यक हैं। एण्डोन्यूक्लिऐज डीएनए खण्डों को काटता हैं, जबकि डीएनए लाइगेज डीएनए खण्डों को पुनः जोड़ता हैं।
जीन विनिमय के परिणामस्वरूप नये लक्षणों का निर्माण होता हैं तथा विभिन्नताएं उत्पन्न होती हैं। जीन विनिमय कभी-भी 50 प्रतिशत से ज्यादा नहीं होता, क्योंकि जीन विनिमय के दौरान Tetrad के चार क्रोमेटिड्स में से केवल दो क्रोमेटिड भाग लेते हैं।
Ⅳ. डिप्लोटीन (Diplotene) -
यह पूर्वावस्था-Ⅰ की सबसे लंबी प्रावस्था हैं। सिनेप्टोनीमल जटिल (Synaptonemal complex) के घुलने के कारण पुर्नयोजी समजात गुणसूत्र पृथक होना प्रारंभ कर देते हैं। समजात गुणसूत्रों का पृथक्करण पूरी तरह नहीं होता। ये जीन विनिमय वाले एक या एक से अधिक बिंदुओं पर आपस में जुड़े रहते हैं। यह स्थल किआज्मेटा (Chiasmata) कहलाता हैं। किआज्मेटा जीन विनिमय का परिणाम हैं। कशेरूकियों की अंड कोशिका (Oocyte) में डिप्लोटीन कई महिनों या वर्षों तक रूकी हुई रह सकती हैं। इस तरह की निलंबित डिप्लोटीन प्रावस्था को डिक्टियोटीन (Dictyotene) कहते हैं। उपान्तिभवन की शुरूआत डिक्टियोटीन में होती है।
Ⅴ. डायकाइनेसिस (Dikinesis) -
जीन विनिमय के परिणामस्वरूप बने किआज्मेटा सिरों की तरफ खिसकने लगते हैं, इस प्रक्रिया को उपान्तिभवन Terminalisation कहा जाता हैं। केन्द्रक झिल्ली, केन्द्रिका, गॉल्जीकाय, अन्तः प्रर्द्रव्यी जालिका लुप्त हो जाते हैं। तारक किरणें पूरी तरह विकसित हो जाती हैं।
ब. मध्यावस्था-Ⅰ (Metaphase-Ⅰ) -
समजात गुणसूत्रों के जोड़े (Bivalent) मध्य रेखा पर व्यवस्थित हो जाते हैं, इस प्रक्रिया को समूहन (Congression) कहते हैं। प्रत्येक द्विसंयोजी में दो सेन्ट्रोमीयर होते हैं, अतः यहाँ पर दो मेटाफेज प्लेटों (Metaphase plates) का निर्माण होता हैं। इस प्रावस्था में तीन प्रकार के तर्कु तंतु प्रकट होते हैं-
Ⅰ.गुणसूत्रीय तंतु
Ⅱ. आलम्बन तंतु
Ⅲ. अंतर्क्षेत्रीय तंतु
स. पश्चावस्था-Ⅰ (Anaphase-Ⅰ) -
गुणसूत्रीय तंतु में संकुचन के कारण समजात गुणसूत्र के जोड़ेंक ा प्रत्येक गुणसूत्र ध्रुवों की तरफ खिसकता हैं। अंतर्क्षेत्रीय तंतु की लंबाई में वृद्धि होती हैं, जिससे ये समजात गुणसूत्र के प्रत्येक गुणसूत्र को ध्रुवों की ओर धकेलते है। इस खींचने व धकेलने की प्रक्रिया के कारण समजात गुणसूत्र के जोड़ें अलग हो जाते हैं, जिसे पृथक्करण या Disjunction कहते हैं।
मध्यावस्था-Ⅰ में गुणसूत्रीय विभाजन नहीं होता हैं, अतः सेन्ट्रोमीयर नहीं फटती हैं। पश्चावस्था-Ⅰ के अंत में प्रत्येक ध्रुव पर आधे गुणसूत्र पहुंच जाते हैं।
द. अंत्यावस्था-Ⅰ (Telophase-Ⅰ) -
प्रत्येक ध्रुव पर स्थित गुणसूत्रों का अकुण्डलन, दीर्घीकरण व विसंघनन होता हैं। इससे क्रोमेटिन जाल का निर्माण होता हैं। केन्द्रक झिल्ली, केन्द्रिका, अंतःप्रर्द्रव्यी जालिका, गॉल्जीकाय प्रकट हो जाते हैं। तारक किरणे व तर्कु तंतु गायब हो जाते हैं।
*इण्टरकाइनेसिस (Interkinesis) -
अर्द्धसूत्री विभाजन- Ⅰ व Ⅱ के बीच की प्रावस्था इण्टरकाइनेसिस कहलाती हैं। यह समसूत्री विभाजन की अंतरावस्था के समान हैं, परंतु इसमें संश्लेषण प्रावस्था अनुपस्थित होती हैं। अर्द्धसूत्री विभाजन-Ⅰ में गुणसूत्रीय विभाजन नहीं होता तथा डीएनए को प्रतिकृतिकृत करने की आवश्यकता नहीं होती।
2. अर्द्धसूत्री विभाजन-Ⅱ (Meiosis-Ⅱ) -
अ.पूर्वावस्था-Ⅱ (Prophase-Ⅱ) -
अर्धसूत्री विभाजन-Ⅱ गुणसूत्र के पूर्ण लंबा होने के पहले व कोशिकाद्रव्य विभाजन के तत्काल बाद प्रारंभ होता है। अर्धसूत्री विभाजन-Ⅰ के विपरीत अर्धसूत्री विभाजन-Ⅱ सामान्य सूत्री विभाजन के समान होता है। पूर्वावस्था-Ⅱ के अंत तक केन्द्रक आवरण अदृश्य हो जाता हैं। गुणसूत्र पुनः संहनित हो जाते हैं।
ब. मध्यावस्था-Ⅱ (Metaphase-Ⅱ) -
इस अवस्था में गुणसूत्र मध्यांश पर पंक्तिबद्ध हो जाते हैं, और विपरीत ध्रुवों की तर्कुतंतु की सूक्ष्मनलिकाएं, इनके संतति अर्धगुणसूत्र के काइनेटोकोर से चिपक जाती हैं।
स. पश्चावस्था-Ⅱ (Anaphase-Ⅱ) -
इस अवस्था में गुणसूत्रबिंदु अलग हो जाते हैं और इनसे जुड़े संतति अर्धगुणसूत्र कोशिका के विपरीत ध्रुवों की ओर चले जाते हैं
द. अंत्यावस्था-Ⅱ (Telophase-Ⅱ) -
यह अवस्था अर्धसूत्री विभाजन की अंतिम अवस्था हैं, जिससे गुणसूत्रों के दो समूह पुनः केन्द्रक आवरण द्वारा घिर जाते हैं। कोशिकाद्रव्य विभाजन के उपरांत चार अगुणित संतति कोशिकाओं का कोशिका चतुष्टय बन जाता हैं।
अर्धसूत्री विभाजन का महत्व (Importance of Meiosis) -
- लैंगिक जनन के लिए आवश्यक युग्मकों का निर्माण अर्द्धसूत्री विभाजन द्वारा होता हैं।
- किसी भी जाति में गुणसूत्रों की संख्या निश्चित बनाए रखने हेतु अर्धसूत्री विभाजन आवश्यक हैं।
- अर्धसूत्री विभाजन के द्वारा आनुवंशिक विभिन्नताएं उत्पन्न होता हैं। (जीन विनिमय द्वारा) जो कि उद्विकास के लिए अति महत्वपूर्ण हैं।
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