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मानव प्रजनन तंत्र (Human Reproductive System)

अपनी जाति या वंश की निरंतरता को बनाये रखने के लिए प्रत्येक जीवधरी अपने ही समान जीवों को पैदा करता है, जीवों में होने वाली इस क्रिया को प्रजनन कहते है। जीवों के प्रजनन मे भाग लेने वाले अंगों को प्रजनन अंग (Reproductive organs) तथा एक जीव के सभी प्रजनन अंगों को सम्मिलित रूप से प्रजनन तंत्र (Reproductive System) कहते है।

जीवों में जनन को एक जीव विज्ञानीय प्रक्रम के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसमें एक जीव अपने समान एक छोटे से जीव (संतति) को जन्म देता है। संतति में वृद्धि होती है, उनमें परिपक्वता आती है तथा इसके बाद वह नयी संतति को जन्म देती है। इस प्रकार जन्म, वृद्धि तथा मृत्यु चक्र चलता रहता है। जनन प्रजाति में एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी में निरंतरता बनाए रखती है। जीव विज्ञानीय संसार में व्यापक विविधता पाई जाती है तथा प्रत्येक जीव अपने को बहुगुणित करने तथा संतति उत्पन्न करने के लिए अपनी ही विधि विकसित करता है। जीव किस प्रकार से जनन करता है उसके वास, उसकी आंतरिक शरीर क्रिया विज्ञान तथा अन्य कई कारक सामूहिक रूप से उत्तरदायी हैं।

 

जनन प्रक्रिया दो प्रकार की होती है जो एक अथवा दो जीवों के बीच भागीदारी पर आधरित रहती है। जब संतति की उत्पत्ति एकल जनक द्वारा युग्मक (गैमीट) निर्माण की भागीदारी के साथ अथवा इसकी अनुपस्थिति में हो तो वह जनन अलैंगिक कहलाता है। जब दो जनक (विपरीत लिंग वाले) जनन प्रक्रिया में भाग लेते हैं तथा नर और मादा युग्मक (गैमीट) में युग्मन होता है तो यह लैंगिक जनन कहलाता है।

 

मानव प्रजनन-तंत्र (Human Reproductive System) –

मानव लैंगिक रूप से जनन करने वाला और सजीव प्रजक या जरायुज, एकलिंगी (Unisexual) प्राणी है। इसमें अण्डे का निषेचन फैलोपियन नली में तथा भ्रूणीय विकास गर्भाशय मे होता है ये जरायुज (Viviparous) होते है, अर्थात सीधे शिशु को जन्म देते है। मनुष्य में जनन अंग मादा में 12 से 13 वर्ष की आयु मे तथा नर में 15 से 18 वर्ष की आयु में प्रायः क्रियाशील हो जाते है। जनन अंग कुछ हार्मोन स्त्रावित करते है, जो शरीर में परिवर्तन लाते है। ऐसे परिवर्तन मानव में प्रायः स्तन तथा जनन अंगों पर बाल उगने, दाढ़ी तथा मूँछ आने से परिलक्षित होता है। मनुष्य मे नर तथा मादा प्रजनन अंग पूर्णतया अलग-अलग होते है।

 

नर जनन अंग (Male Reproductive System) –

मनुष्य का नर जनन तंत्र अधोलिखित अंगों का बना होता है-

1. वृषण एवं वृषणकोष  

2. अधिवृषण   

3. शुक्रवाहिनिया 

4. शुक्राशय

5. मूत्र मार्ग   

6. शिशन   

7. प्रोस्टेट तथा काउपर्स ग्रंथियाँ

 

1.वृषण एवं वृषणकोष (Testis & Scrotal Sac) –

मनुष्य मे एक जोड़ी वृषण पाए जाते है, जो दोनों पैरो के मध्य शिशन के दोनों ओर लटकते रहते है। वृषण मे शुक्राणुओं का निर्माण होता है। जिस त्वचा की थैली में वृषण लटके रहते है, उसे वृषण कोष (Scrotal Sac Or Scrotum) कहते है। चूँकि शुक्राणुओं का निर्माण शरीर के तापक्रम से कम ताप पर होता है, इसीलिए ये शरीर से बाहर पाए जाते है। आंतरिक संरचना की दृष्टि से वृषण एक अंडाकार रचना है, जो पेरिटोनियम नामक झिल्ली से घिरी रहती है। इसमें बहुत सारी शुक्रजनन नालिकाएँ (Seminiferous Tubules) पायी जाती है। शुक्रजनन नलिकाओं के बीच अंतराली कोशिकाएँ (Interstitial cells) पायी जाती है, जो टेस्टोस्टोरोन नामक हार्मोन का स्त्राव करती है।

 

2. अधिवृषण (Epididymis)

शुक्रवाहिकाएं अत्यधिक कुंडलित होकर वृषण के उपरी किनारे पर अधिवृषण का निर्माण करती है | मनुष्य में यह 6 मीटर लम्बी नलिकाकार संरचना होती है, इसे एपिडडायमिस भी कहा जाता है | अधिवृषण को तीन भागो में बाँटा गया है –

I.अधिवृषण शीर्ष –

यह अधिवृषण का उपरी भाग है, इसे ग्लोवस मेजोरा भी कहा जाता है |

II. अधिवृषण काय –

यह अधिवृषण का मध्य भाग होता है |

III. अधिवृषण पूंछ –

यह अधिवृषण का निचला भाग होता है | इसे ग्लोवस माइनर भी कहा जाता है | अधिवृषण पूंछ ही गुबरनेकुलुम तंतुओ के द्वारा वृषण कोषों से जुड़ा रहता है |

 

अधिवृषण के कार्य –

अधिवृषण शुक्राणुओं को पोषण और गतिशीलता प्रदान करता है | अधिवृषण में शुक्राणुओं का योग्यतार्जन होता है अर्थात अंडाणुओं को निषेचित करने की क्षमता प्रदान की जाती है |

 

3. शुक्रवाहिनी (Vasa Deferens)

पूंछ अधिवृषण से एक सीधी नलिकाकार संरचना निकलती है, जो वृषणरज्जुओ के सहारे उदरगुहा में प्रवेश कर मूत्रवाहिनी के चारों ओर घूमकर शुक्राणुओं को  एक आशय में ले जाकर छोड देती है, इस नलिका को शुक्रवाहिनी कहा जाता है | जिनकी संख्या 2 होती है |

 

4. शुक्राशय (Seminal Vesicle)

इसे युटेरस मेस्कुलाईनस भी कहा जाता है | यह ग्रंथिल संरचना है | जिसमे वीर्य का लगभग 60-70% भाग निर्मित होता है | वीर्य एक गाढ़ा, श्यान, क्षारीय द्रव होता है | जिसमे प्रोटीन, फ्रक्टोज व प्रोस्टाग्लंडिन्स आदि पाए जाते है | फ्रक्टोज व प्रोटीन तो शुक्राणुओं को पोषण व ऊर्जा प्रदान करते है और प्रोस्टाग्लंडिन्स गर्भाशय में क्रमानुकुंचन गति उत्पन्न कर शुक्राणुओं को गति करने में सहायता करते है |

कार्य –

यह शुक्राणुओं को पोषण, ऊर्जा व गति प्रदान करता है | शुक्राशय मूत्र मार्ग के आधार भाग पर खुलता है, जो आगे की ओर मुत्रजनन मार्ग से जुड़ा रहता है |

 

5. मूत्र मार्ग (Urethra) -

यह एक पेशीय नलिका है, जो मूत्राशय से मूत्र को बाहर निकालने का कार्य करती है। यह शिशन के शीर्ष पर खुलती है तथा रास्ते मे इसमें शुक्राशय से स्खलन नलिका आकर मिलती है। इसीलिए यह मूत्र त्यागने के अलावा मैथुन के समय वीर्य स्खलन का कार्य भी करती है।

 

6. शिशन (Penis) –

यह नर का बाह्य जनन अंग है, जो विशेष प्रकार के स्पांजी ऊतकों का बना होता है। इसका ऊपरी फूला हुआ भाग शिशन मुण्ड (Glans Penis) कहलाता है, जो अत्यधिक संवेदनशील होता है और उद्दीप्त होकर होकर संभोग की इच्छा व्यक्त करता है। शिशन, वीर्य को मादा जननांगो में पहुँचाने का कार्य करता है।

 

7. प्रोस्टेट, काउपर्स, पेरिनीयल तथा रेक्टल ग्रंथियाँ –

मूत्रमार्ग मे जहाँ पर स्खलन नलिका खुलती है, वहाँ मूत्रमार्ग के चारों और एक ग्रंथि पायी जाती है, जिसे प्रोस्टेट ग्रंथि (Prostate Gland) कहते है। इससे एक द्रव का स्त्राव होता है, जो वीर्य का 15-30% भाग बनाता है। यह शुक्राणुओं को तैराने का माध्यम देता है। वीर्य की विशिष्ट गंध इसी द्रव के कारण होती है। प्रोस्टेट ग्रंथि के नीचे मूत्रमार्ग के दोनों तरफ मटर के दाने के आकार की एक ग्रंथि पायी जाती है, जिसे काउपर्स ग्रंथि (Cowper’s Gland) कहते है। इससे भी एक क्षारीय द्रव का स्त्राव होता है, जो शुक्रद्रव के गाढेपन को कम करता है, तथा मूलमार्ग को जीवाणुविहीन बनाता है। मलाशय के निकट एक जोड़ी गहरे रंग पेरिनीयल तथा इसी के निकट एक जोड़ी पीले रंग की रेक्टल ग्रंथियाँ पायी जाती है, जो विशेष प्रकार की गंध उत्पन्न करती है।

 

वीर्य (Semen) –

शुक्राणुओं, शुक्राशय द्रव, प्रोस्टेट एवं काउपर्स ग्रंथियों के स्त्राव को सम्मिलित रूप से वीर्य कहते है। यह संभोग के अंत में पुरूष के शिशन से निकलता है तथा योनि में चला जाता है। मनुष्य के एक स्खलन मे लगभग 2.5 से 3.5 मिली वीर्य निकलता है। इसमें लगभग बीस करोड़ से चालीस करोड़ शुक्राणु होते है। वैसे निषेचन के लिए एक शुक्राणु ही पर्याप्त होता है। वीर्य में अन्य पदार्थो के अलावा कैल्शियम साइट्रेट, प्रोटीन तथा कार्बोहाइट्रेट भी पाए जाते है। 

 

शुक्राणु की संरचना –

इसकी संरचना एक शीर्ष (हेड), ग्रीवा (नेक), एक मध्य खंड (मिड्ल पीस) और एक पूँछ (टेल) की बनी होती है। एक प्लाज्मा झिल्ली शुक्राणु की पूरी काय (बॉडी) को आवृत्त किए रहती है। शुक्राणु के शीर्ष में एक दीर्घीकृत (इलांगेटेड) अगुणित केन्द्रक (हेप्लॅायड न्यूक्लियस) होता है तथा इसका अग्रभाग एक टोपीनुमा संरचना से आवृत होता है जिसे अग्रपिंडक (एक्रोसोम) कहते हैं। यह अग्रपिंडक उन प्रकिण्वों (एंजाइम्स) से भरा होता है, जो अंडाणु के निषेचन में मदद करते हैं। शुक्राणु के मध्य खंड में असंख्य सूत्राकणिकाएँ (माइटोकॉन्ड्रिया) होती हैं, जो पूँछ को गति प्रदान करने के लिए ऊर्जा उत्पन्न करती हैं जिसके कारण शुक्राणु को निषेचन करने के लिए आवश्यक गतिशीलता प्रदान करना सुगम बनाता है। मैथुन क्रिया के दौरान पुरुष 20 से 30 करोड़ शुक्राणु स्खलित करता है सामान्य उर्वरता (अबंधता) से लगभग 60 प्रतिशत शुक्राणु निश्चित रूप से सामान्य आकार और आकृति वाले होने चाहिए। इनमें से कम से कम 40 प्रतिशत आवश्यक रूप से सामान्य जनन क्षमता के लिए तीव्र गतिशीलता प्रदर्शित करते हैं। शुक्रजनक नलिकाओं से मोचित (रिलीज्ड) शुक्राणु सहायक नलिकाओं द्वारा वाहित (ट्रांसपोर्टेड) होते हैं। शुक्राणुओं की परिपक्वता एवं गतिशीलता के लिए अधिवृषण, शुक्रवाहक, शुक्राशय तथा पुरस्थ ग्रंथियों का स्रवण भी आवश्यक है। शुक्राणुओं के साथ-साथ शुक्राणु प्लाज्मा मिलकर वीर्य (सीमेन) बनाते हैं। पुरुष की सहायक नलिकाओं और ग्रंथियों के  कार्य को वृषण हॉर्मोन (ऐंड्रोजेंस) बनाएं रखता है।

 

नर जनन अंगों के कार्य है- 

(I)शिशन का उत्तेजित होना

(II) मैथुन

(III) स्खलन

 

मादा-जनन तंत्र (Female Reproductive System) -

मनुष्य का मादा जनन तंत्र भी कई अंगों का बना होता है। मादा जनन तंत्र, नर जनन तंत्र की अपेक्षा थोड़ा जटिल होता है। मादा जनन तंत्र में अण्डाशय को मुख्य जनन अंग तथा शेष अंगों को सहायक या द्वितीयक जनन अंग कहते है।  मादा जनन तंत्र मे निम्नलिखित जनन अंग होते है- 

1.एक जोड़ी अण्डाशय  

2. एक जोड़ी अण्डवाहिनियाँ   

3. एक गर्भाशय     

4. योनि तथा योनि अंग। 

 

1.अण्डाशय (Ovary) -

इनकी संख्या दो होती है तथा ये गर्भाशय के दोनों तरफ एक-एक की संख्या मे स्थित होते है। प्रत्येक अंडाशय उदर गुहा की पृष्ठ दीवार से मीसोवेरियम एवं गर्भाशय से बॉड लिंगामेंट नामक पेशी द्वारा जुड़ा रहता है। इनका मुख्य कार्य अण्डाणु (Ovum) पैदा करना है। अण्डाशय से दो हार्मोन एस्ट्रोजन (Estrogen) तथा प्रोजेस्टेराँन (Progesterone) का स्त्राव होता है, जो ऋतुस्त्राव को नियंत्रित करते है।

 

2. अण्डवाहिनियाँ (Fallopian Tube) –

प्रत्येक अंडाशय से एक-एक नालिका शुरू होती है, जिसका दूसरा सिरा गर्भाशय से जुड़ा होता है, इसे ही अण्डवाहिनी (Oviduct or Fallopian Tube) कहते है। यह अण्डाणु को गर्भाशय मे पहुँचाती है। जब अण्डाणु अण्डाशय से देहगुहा मे आता है, तो यह पूर्ण परिपक्व नही होता। इसका शेष परिपक्व अण्डवाहिनी मे ही होता है, निषेचन की क्रिया भी अण्डवाहिनी मे ही होती है। मादा जनन पथ में पहुँचने के पश्चात नर शुक्राणु अपनी निषेचन क्षमता दो दिनों तक सुरक्षित रख सकते है। 

 

3. गर्भाशय (Uterus) –

गर्भाशय नाशपाती के आकार की रचना है, जो उदर गुहा के निचले श्रोणि भाग में स्थित होता है। इसके पीछे की ओर मलाशय एवं आगे की ओर मूत्राशय स्थित होता है। गर्भाशय के निचले संकरे भाग को ग्रीवा (Cervix) कहते है। यह योनि में खुलता है। गर्भाशय का मुख्य कार्य निषेचित अण्डाणु को भ्रूण मे परिवर्तित होने तथा इसके विकास के लिए स्थान प्रदान करना है। यहीं आगे चलकर बच्चे का विकास होता है।

 

4. योनि तथा योनि अंग (Vagina & Vaginal Organs) –

योनि तथा योनि अंगों को सम्मिलित रूप से भग (Vulva) कहते है। योनि एक संकरी नली होती है, जिसकी दीवार पेशीय ऊतकों की बनी होती है। इसका एक सिरा मादा जनन छिद्र के रूप में बाहर खुलता है तथा दूसरा सिरा पिछे की ओर गर्भाशय की ग्रीवा से जुड़ा रहता है। योनि के शरीर के बाहर खुलने वाले छिद्र को योनि द्वार (Vaginal Orifice) कहते है। योनि की दीवार मे बार्थोलिन की ग्रंथियाँ (Bartholin's Glands) पायी जाती है, जिनसे एक चिपचिपा द्रव निकलता है। यह द्रव संभोग के समय योनि को चिकना बनाता है। योनि तथा मुत्रवाहिनी के द्वार के ऊपर एक छोट-सा मटर के दाने के जैसा उभार होता है, जिसे भग शिश्निका (Clitoris) कहते है। यह अत्यन्त ही उत्तेजक अंग है, जिसे स्पर्श करने या शिशन के सम्पर्क मे लाने पर स्त्री को अत्यधिक आनंद की अनुभूति होती है। मैथुन के समय स्खलन में शिशन से वीर्य निकलकर योनि मे गिरता है, तथा योनि इसे अण्डवाहिनी में पहुँचा देती है।

 

मासिक चक्र (Menstruation Cycle) –

स्त्री का प्रजनन काल 12-13 वर्ष की उम्र से प्रारम्भ होता है, जो 40-45 वर्ष की उम्र तक चलता है। इस प्रजनन काल में गर्भावस्था को छोड़कर प्रति 26 से 28 दिनों की अवधि पर गर्भाशय से रक्त तथा इसकी आंतरिक दीवार से श्लेष्म का स्त्राव होता है। यह स्त्राव तीन-चार दिनों तक चलता है। इसे ही रजोधर्म या मासिक धर्म या ऋतु स्त्राव (Menstruation Cycle) कहते है। स्त्रिायों में 40-50 वर्ष के पश्चात ऋतु स्त्राव नही होता, इसे रजोनिवृत्ति (Menopause) कहते है। ऋतु स्त्राव के प्रारंभ होने के 14 दिन बाद अंडोत्सर्ग होता है। स्त्रियों मे एक महीने मे केवल एक बार अण्डोत्सर्ग (Ovulation) होता है। यह अण्डोत्सर्ग दोनों अण्डाशयों मे बारी-बारी से होता है। अण्डोत्सर्ग के कुछ देर पश्चात ही अण्डाणु, अंडवाहिनी में पहुँच जाता है और 15 से 19वें दिन तक इसमें रहता है। इस बीच यदि स्त्री संभोग करें, तो यह अण्डाणु निषेचित होकर गर्भाशय मे चला जाता है अन्यथा अगले ऋतु स्त्राव में वह बाहर निकल जाता है।

 

मानव प्रजनन की क्रियाविधि (Mechanism of Human Reproduction) –

मानव के प्रजनन मे निम्नलिखित तीन अवस्थाएँ होती है –

1.युग्मक जनन  

2. निषेचन  

3. भ्रूणीय विकास

 

1.युग्मक जनन (Gametogenesis) –

वृषण एवं अण्डाशयों मे युग्मकों के निर्माण की क्रिया को युग्मक जनन कहते है। युग्मकों का निर्माण वृषण एवं अण्डाशय की जनन कोशिकाओं मे अर्द्धसूत्री विभाजन के द्वारा होता है। वृषण में शुक्राणुओं का निर्माण शुक्राणुजनन (Spermatogeneasis) एवं अण्डाणु का अण्डाशय में निर्माण अण्डाणुजनन (Oogenesis) कहलाता है।


Spermatogenesis
Spermatogenesis

 

Oogenesis
Oogenesis


2. निषेचन (Fertilisation) –

नर युग्मक (शुक्राणु) तथा मादा युग्मक (अण्डाणु) के आपस मे सम्मिलिन से युग्मनज (Zygote) बनने की क्रिया को निषेचन (Fertilisation) कहते है। मनुष्य में अन्तः निषेचन पाया जाता है, अर्थात अण्डाणु एवं शुक्राणु मादा के शरीर के अन्दर मिलते है। मनुष्य मे निषेचन की क्रिया मादा की अण्डवाहिनी (Oviduct) मे होती है। इस क्रिया में नर युग्मक का केवल केन्द्रक भाग लेता है, जबकि सम्पूर्ण मादा युग्मक इसमे भाग लेता है।

 

3. भ्रूणीय विकास (Embryonic Development) –

निषेचन के पश्चात बना युग्मनज तेजी से समसूत्री विभाजनों द्वारा विभाजित होने लगता है और अन्ततः गर्भाशय मे एक पूर्ण विकसित शिशु को स्थापित करता है।

 

- निषेचन के लगभग 10 सप्ताह तक के विकसित युग्मनज को भ्रूण (Embryo) तथा युग्मनज मे होने वाले विभिन्न क्रमिक परिवर्तनों को भ्रूणीय विकास कहते है।

- भ्रूण मे पाँचवें सप्ताह तक तीन जननिक स्तरों का निर्माण हो जाता है। तीन जननिक स्तर है- (I) एण्डोडर्म (II) मीसोडर्म (III) एक्टोडर्म। इसके बाद इन स्तरों से विभिन्न अंगों का निर्माण होता है।

- भ्रूण में सातवें से नवें सप्ताह के मध्य तक हाथ, पैर, श्वसन, तंत्रिका एवं पाचन तंत्र बन जाते है।

- तीसरे माह भ्रूण में कंकाल बन जाता है।

- चौथे माह में सिर व शरीर पर रोये, पाँचें माह मे आहारनाल, रुधिर व अस्थिमज्जा बन जाते है।

- छठे माह में भ्रूण छोटे से शिशु का रूप धरण कर लेता है।

- सातवें माह तक उसके सभी अंग भली-भांति कार्य करने लगते है।

- आठवें माह उसमे वसा का जमाव होने लगता है।

- नवें माह वह जन्म के लिए तैयार हो जाता है। भ्रूण का पोषण जरायु (Chorin), एम्नियॉन एवं अपरा (Placenta) द्वारा होता है। मनुष्यका गर्भाधन काल 280 दिन होता है, इसके पश्चात प्रसव द्वारा शिशु मादा के शरीर से बाहर आ जाता है।

 

गर्भधारण के लिए उपयुक्त परिस्थियाँ –

संभोग द्वारा हमेशा गर्भधारण नही होता। इसके लिए कुछ निम्नलिखित परिस्थितियों का होना आवश्यक है-

- गर्भधारण के लिए आवश्यक है, ऋतु स्त्राव के 14वें दिन के आस-पास या 11वें से 18वें दिन के अन्दर संभोग अनिवार्य रूप से हो।

- अण्डवाहिनी एवं गर्भाशय सूजन एवं संक्रमण से मुक्त हो।

- वीर्य में शुक्राणुओं की संख्या सामान्य हो।

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