आदिकाल से मानव वृद्ध होने की प्रावस्था, इसके कारण एवं निवारण हेतु निरंतर प्रयासरत रहे हैं। प्राणी के अपने
शिशुकाल से वृद्धावस्था तक पहुँचने में अनेकों जटिल विकासीय प्रावस्थाओं से गुजरना
पड़ता हैं। उसके सम्पूर्ण जीवनकाल में अनेकों महत्वपूर्ण परिवर्तन होते हैं तथा ये
सभी आश्चर्यचकित कर देने वाले होते हैं। हम वृद्धावस्था की ओर क्यों अग्रसर होते
हैं ? कुछ जंतुओं का जीवन-चक्र अन्य जंतुओं की अपेक्षा छोटा
क्यों होता हैं ? प्राणी की कोशिकाएं एवं विभिन्न ऊत्तक
भिन्न-भिन्न दरों पर क्यों परिपक्व होते हैं। क्या इस प्रावस्था से छुटकारा पाया
जा सकता हैं ? कुछ ऐसे प्रश्न हैं जो मानव को निरंतर इस
क्षेत्र में अनुसंधानरत रहने के लिए प्रेरित करते हैं। मिनॉट के अनुरूप काल
प्रभावन (Ageing) के अन्तर्गत वास्तव में समय के साथ-साथ
वृद्धि की दर में लगातार कमी होती है तथा जिस स्तर के विभेदीकरण पर प्राणी पहुँच
चुका हैं, शायद उसी की कीमत उसे इस रूप में चुकानी पड़ती हैं।
वास्तव में विभेदीकरण की क्रिया जंतु के विकासीय क्रम से पृथक नहीं की जा सकती
हैं। केवल वृद्धावस्था का ही अध्ययन काल प्रभावन में नहीं किया जाता हैं अपितु
जंतु के जन्म से इसके वृद्धावस्था तक की सभी प्रावस्थाएं इस श्रेणी में सम्मिलित
की गई हैं। जेरेन्टोलॉजी (Gerontology) विज्ञान की वह शाखा हैं
जिसके अन्तर्गत प्राणी के काल प्रभावन (Ageing) का अध्ययन
किया जाता हैं। वृद्धावस्था में प्राणी के कमजोर व क्षीण होने के लक्षणों का
अध्ययन एवं उपचार जेटियाट्रिक्स (Geriatrics) के अन्तर्गत किया जाता हैं।
केवल वृद्धावस्था अर्थात् जीवन चक्र के अंतिम कुछ वर्षों में देह में परिवर्तन
अथवा विकार जीर्णता (Senescence) के अन्तर्गत सम्मिलित किए गए
हैं।
अतः
काल प्रभावन वास्तव में एक सतत क्रिया है जिसे रोक पाना अभी तक संभव नहीं हो सका
है, यद्यपि इसके धीमी गति से गतिमान होने के लिए अनेकों
अनुसंधान वैज्ञानिकों द्वारा किए गए हैं तथा इन्हें इस क्षेत्र में सफलता भी मिली
हैं। वृद्धावस्था से फिर से वयस्कावस्था अथवा बालपन में पहुंचने की क्रिया केवल
कल्पना मात्र हैं। मानव के जीवन काल (Life-span) को बढ़ाने
में भी अनुसंधानकर्ताओं को आंशिक सफलता ही मिली हैं, परंतु
यह निश्चित है कि आने वाले समय में इस क्षेत्र में व्यापक कार्यों व अनुसंधानों की
सहायता से मानव के जीवन काल के विभिन्न चरणों (बालपन, वयस्कावस्था,
वृद्धावस्था) के नियत काल में वृद्धि हो सके तथा बालपन से
वृद्धावस्था तक पहुंचने में अधिक समय लगे।
वृद्धावस्था
में पहुंचते-पहुंचते एक 70 वर्ष के मानव का हृदय एक मिनट में
केवल 65 प्रतिशत रक्त को ही पम्प करता है तथा मस्तिष्क एवं
वृक्कों (Kidneys) में रक्त का परिसंचरण क्रमशः 80 प्रतिशत एवं 42 प्रतिशत रहता हैं। 30 वर्ष की आयु के पुरूष के सभी अंगों में रक्त की मात्रा का अधिक परिसंचरण
होता हैं। 20 वर्ष की अवस्था में रक्त फुफ्फुसों से एक मिनट
में लगभग 4 लीटर ऑक्सीजन का संवहन करता है जबकि 75 वर्ष की आयु में पुरूष में यह केवल 1.5 लीटर रक्त
का ही संवहन कर पाता हैं।
इसी प्रकार जैसे-जैसे उम्र बढ़ती हैं, वृक्कों की नलिकाओं (Tubules) एवं स्वाद कलिकाओं की
संख्या में कमी होती हैं। मस्तिष्क के वल्कुट भाग में जन्म के समय लगभग 158 प्रतिशत तंत्रिका कोशिकाएं (Neurons) होते हैं जबकि
96 वर्ष की आयु में इनकी संख्या केवल 80 प्रतिशत ही रह जाती हैं। कोशिकाओं में जल संग्रहित करने की क्षमता क्षीण
हो जाती हैं, रक्त की मात्रा कम हो जाती है एवं ऊत्तक शुष्क
हो जाते हैं। इन सभी परिवर्तनों के फलस्वरूप मानव वृद्धावस्था में कमजोर व इसकी
त्वचा झुर्रीदार हो जाती हैं। अस्थियां कमजोर हो जाती हैं तथा शरीर झुकने लगता हैं
(Stooping body) ।
कोशिकीय
स्तर पर माइटोकॉण्ड्रिया (Mitochondria) का अपक्षरण होता
हैं। जिसके कारण षर्करा के उपापचय की दर कम हो जाती है तथा ग्लाइकोलिसिस (Glycolysis) एवं क्रेब्स चक्र (Krebs’s cycle) पर प्रतिकूल
प्रभाव पड़ता हैं।
पुरानी
कोशिकाओं में कणिकामय अंतःप्रर्दव्यीजालिका (Granular Endoplasmic
Reticulum) की संख्या में कमी हो जाती हैं। पूर्व अवधारणा के अनुसार
वृद्धावस्था में केन्द्रक पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु अब
यह अवधारणा हैं कि आयु के साथ-साथ ही केन्द्रक में भी अनेकों परिवर्तन देखे जा
सकते हैं। इसी प्रकार कोशिकीय झिल्लियों में Ca+2 (Calcium
ions) के एकत्रित हो जाने के कारण इसमें अनेकों कार्यिकीय परिवर्तन
देखे जा सकते हैं।
कोशिकाओं
में वृद्धावस्था में अनेकों प्रकार के वर्णक जैसे लाइपोफ्युसिन
(Lipofuchsin)
इत्यादि एकत्रित होने लगते हैं। वास्तव में लाइपोफ्युसिन, वसीय
पदार्थों के ऑक्सीकरण से बनते हैं व कोशिकाओं में एकत्रित हो जाते हैं। कई बार तो
लाइसोसोम्स (Lysosomes) में से हानिकारक एंजाइम अन्य
कोशिकाओं में प्रवेश कर इन्हें क्षतिग्रस्त कर देते हैं।
काल
प्रभावन को समझाने के लिए अनेकों मत प्रस्तुत किए गए हैं। वास्तव में शरीर में एकल
कोशिकाओं के प्रभाव होकर रूप ग्रहण करते हैं। अनेकों कारक जैसे रासायनिक तत्व,
भौतिक व यांत्रिक परिवर्तन तथा विकीरण प्राणियों को अनेकों रूप से
प्रभावित करते हैं। इस प्रकार के प्रभावों के फलस्वरूप जंतु स्वयं को वातावरणीय
परिस्थितियों के अनुकूल बनाने में सक्षम नहीं रह पाते।
काल प्रभावन के बाह्य मतों (External
theories) के अनुसार वातावरण (प्रदूषण, खाद्य
सामग्रियों की अनुपलब्धता, धूम्रपान व मानसिक दबाव) पोषणीय
प्रावस्थाएं, जीवाणु (Bacteria) व
विषाणु (Virus) तथा विकीरण (Radiation)
अनेकों रूपों से प्राणियों को प्रभावित करते हैं एवं इनके जीवन काल को सीमित करते
हैं। आंतरिक मतों में चार वाद प्रमुख हैं -
1.बहिर्जात वाद (Extrinsic theories) -
समस्त जंतुओं में अनियंत्रित एवं असंतत अभिक्रियाएं जो
कि प्रकृति में असमान रूप से घटित होती हैं, अनियमितता की कारक
हैं। ये कोशिका झिल्ली के अतिरिक्त, कॉलेजन तंतुओं (Collagen
fibres) व DNA तक को प्रभावित करती हैं।
2. अंतर्जात वाद (Intrinsic theories) -
इस वाद के अनुरूप काल प्रभावन सीधे ही आनुवंशिकता
द्वारा नियंत्रित की जाती हैं। अपने आप में उत्परिवर्तन (Mutation) इस क्रिया में कोई खास महत्व के नहीं होते हैं, परंतु
अन्य कारकों के साथ सम्मिलित रूप से क्रिया करने के उपरान्त वे स्थायी प्रभाव छोड़
सकते हैं।
3. कॉलेजन वाद (Collagen theory) -
कॉलेजन तंतु समस्त शरीर में लगातार विन्यासित रहते
हैं। प्राणी की आयु के साथ-साथ ही इनमें भी निश्चित परिवर्तन होते हैं। काल
प्रभावन क्रिया के संदर्भ में इन्हें ही अध्ययन हेतु प्रमुखता से चुना गया है।
प्राणी की उम्र के साथ कॉलेजन तंतुओं की घुलनशीलता कम हो जाती हैं।
4. इम्युनोजॉजिकल वाद (Immunological theory) -
नवीन परिप्रेक्ष्य में काल प्रभावन प्राणी के
प्रतिरक्षी अभिक्रिया (Immune response) में परिवर्तनों के
फलस्वरूप ही प्रारम्भ होती हैं। बढ़ती उम्र के साथ-साथ प्राणी के किसी भी परिस्थिति
को सहने की क्षमता निरंतर क्षीण होती जाती हैं।
काल
प्रभावन क्रिया को ढंग से समझने के लिए अनेकों अन्य तथ्य उपलब्ध हैं। अब यह प्रयास
किया जा रहा है कि किसी प्रकार मानव की वयस्कवस्था का काल (Youth period) बढ़ा दिया जाए जिससे कार्य करने की क्षमता में वृद्धि की जा सके। इसी
प्रकार कुछ घातक व असहनीय वृद्धावस्था की बीमारियों में भी कमी की जा सकती हैं। अब
जीव वैज्ञानिक, जीव रसायनविज्ञ, साइकोलॉजिस्ट्स
इत्यादि काल प्रभावन क्रिया का मूल कारण ढूंढने में कार्यरत हैं, परंतु इन सभी तथ्यों की जानकारी करने तक हमें लम्बे समय तक विस्तृत
अध्ययन कर नवीन अनुसंधानों की सहायता से
ज्ञान प्राप्त करना हैं।
काल प्रभावन के लक्षण (Symptoms of Ageing) -
आयुकरण या काल प्रभावन के समय विभिन्न परिवर्तन होते
हैं अर्थात् यह वृद्धावस्था की ओर बढ़ने का प्रक्रम हैं जिसमें शरीर की कार्यिकीय, रासायनिकीय, कोशिकीय एवं आण्विक प्रक्रियाओं की
ह्रास एवं अवनति होती हैं। काल प्रभावन से सम्बन्धित निम्न परिवर्तन मुख्य हैं -
Ⅰ.उपापचयी क्षमता में कमी आना।
Ⅱ. पुरानी तथा क्षतिग्रस्त
कोशिकाओं की प्रतिस्थापन क्षमता में कमी आना तथा
Ⅲ. क्षतिग्रस्त ऊत्तकों, अंशों एवं अंग तंत्रों की मरम्मत में गिरावट आना।
आयु के साथ होने वाले विभिन्न परिवर्तन (Various changes accompanied with Age) -
एक ही जाति के सदस्य एक ही उम्र के होने पर भी उनमें
आयुकरण का स्तर समान हो यह आवश्यक नहीं हैं। जीर्णता की दर अलग-अलग प्राणियों में
भिन्न-भिन्न होती हैं तथा आयु कारक भी कुछ सीमा तक इसे प्रभावित करते हैं। आयुकरण
या जीर्णता का प्रभाव शरीर की कोशिकाओं के जीव-रसायनों पर पड़ता हैं, जिससे आयु के साथ शरीर में विभिन्न परिवर्तन आते हैं। ये परिवर्तन निम्न
होते हैं -
1.तंत्रिका कोशिकाओं में शरीर की अन्य कोशिकाओं की
भाँति विभाजन क्षमता नहीं पाई जाती हैं तथा इनमें बहुत धीमी गति से पुनरूद्भवन
होता हैं जिससे आयुकरण के साथ तंत्रिका कोशिकाओं में कमी आती हैं। एक अध्ययन के
अनुसार 90 वर्ष के मानव मस्तिष्क का भार 30 वर्ष की आयु वाले मानव मस्तिष्क से 10 प्रतिशत कम
हो जाता हैं जिससे मानव की याद्दाश्त तथा मस्तिष्क के अन्य कार्यों में कमी आ जाती
हैं।
2. प्रचलन तंत्र के लिए उत्तरदायी कंकाल पेशियों
तथा कंडराओं के कोलेजन प्रोटीन में आये परिवर्तन से इनके लचीलेपन में कमी आ जाती
हैं एवं जिससे पेशियां कमजोर हो जाती हैं।
3. आयुकरण के साथ कैल्शियम की उपलब्धता में कमी आने
से अस्थियां पतली, कम लचीली तथा चमकदार हो जाती हैं। इससे
प्रायः ऑस्टीयोपोरोसिस (Osteoporosis) हो जाता हैं। इस रोग में हल्की चोट लगने पर
हड्डी टूट जाती हैं। यहाँ तक की अन्तरकशेरूकीय बिम्ब (Intervertebral disc) के कमजोर हो जाने से मानव की लम्बाई में भी कुछ कमी आ जाती हैं।
4. हृदय की क्षमता में कमी आने से रक्त-प्रवाह में
कमी आ जाती हैं, जिससे मूत्र निर्माण में भी कमी हो जाती हैं
तथा मस्तिष्क, वृक्क आदि पर विशेष प्रभाव पड़ता हैं।
5. लाल अस्थि मज्जा द्वारा रूधिराणुओं के निर्माण
में कमी आ जाती हैं।
6. शरीर की सभी कोशिकाओं में जल रोकने की क्षमता
में कमी हो जाती हैं, जिसका स्पष्ट प्रभाव त्वचा के सूखेपन
एवं झुर्रियों (Wrinkles) के रूप में देख सकते हैं।
7. सभी प्रकार के उत्सर्जी पदार्थों का शरीर से
नहीं त्याग पाना।
8. कोशिका विभाजन के समय डी.एन.ए. की संरचना में
त्रुटियाँ अधिक आने लगती है जिससे दोषपूर्ण प्रोटीन्स का निर्माण होने लगता हैं।
9. प्रतिरक्षा तंत्र आयु बढ़ने के साथ ह्रासित होता
हैं। शिशु अवस्था में प्रतिरक्षी तंत्र की क्रिया बढ़ती हैं तथा वयस्क अवस्था पर
अधिकतम पायी जाती हैं। इसके पश्चात् रोगों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता में निरंतर
कमी होती जाती हैं।
आयुकरण
या कालप्रभावन को स्पष्ट करने हेतु विभिन्न सिद्धांत प्रस्तुत किये गये हैं,
लेकिन इसका एक कारण न होकर अनेक कारण होते हैं। यह परिवर्धन की
निश्चित प्रक्रिया हैं तथा इसमें विनाशात्मक क्रियाएं होती हैं। जब इन विनाशात्मक
क्रियाओं को समझ लिया जायेगा तब कालप्रभावन (Ageing) को मंद
किया जा सकेगा। यद्यपि आयुकरण तथा मृत्यु भी आनुवंशिकता द्वारा निर्धारित होती
हैं।
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