Skip to main content

जरायुजता का विकास (Evolution of Viviparity)


जरायुजता -
जिन प्राणियों में युग्मनज का परिवर्धन मादा जनक के शरीर में (प्रायः गर्भाशय में) होता हैं तथा भ्रूण एवं मादा शरीर के बीच संरचनात्मक एवं क्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं, उन्हें जरायुज (Viviparous) प्राणी कहा जाता हैं। ऐसे लैंगिक जनन को जरायुजता (Viviparity) कहते हैं। जरायुज प्राणियों में भ्रूण को जनक शरीर में रहने से सुरक्षा एवं पोषण होने का लाभ प्राप्त होता हें, साथ ही भ्रूण को अन्य जीवन क्रियाओं में सहायता मिलती हैं। ये सभी कार्य एक विशेष अंग के निर्माण द्वारा सम्पन्न होते हैं, जिसके द्वारा भ्रूण माता के गर्भाशय की भित्ति से सम्पर्क स्थापित करता हैं। इस रचना को अपरा (Placenta) कहते हैं। जरायुजता एवं प्लैसेन्टा जन्तु जगत के कई समूहों में पाई जाती हैं। इसकी संरचना एवं निर्माण की विधि भिन्न-भिन्न होती हैं। जरायुज का विकास सरलता से जटिलता की ओर हुआ हैं। सरल प्रकार की जरायुजता स्तनधारियों के वर्ग-यूथीरिया में पाई जाती हैं।



जरायुजता का विकास -
जीवन का प्रारम्भ जलीय माध्यम से हुआ हैं। जलीय जन्तु अपने अण्डे जल में देते हैं। जल में अण्डों के बचने की दर कम होती हैं क्योंकि एक ओर तो जलधारा में अण्डे बह जाते हैं तथा दूसरी ओर अण्डों को जलीय जंतु खा जाते हैं। मेढ़क अपने अण्डों को जल में देता हैं किन्तु उनकी सुरक्षा के लिए मेंढ़क अपने अण्डों को जैली में ढ़क देता हैं। जैलीयुक्त अण्डों के समूह को जलांडक (Spaeon) कहते हैं। जैली का स्वाद विचित्र होने के कारण पक्षी एवं अन्य जंतु इन अण्डों को खा नहीं पाते हैं। कुछ जंतु अण्डों को सीधे जल में छोड़ने की बजाय नम स्थानों पर छोड़ते हैं। जैसे- कछुआ अपने अण्डों को नम स्थानों पर देता हैं। इसके अण्डे वातावरण से नमी सोखने की क्षमता रखते हैं।

          जैविक विकास के दौरान उन सभी जातियों के लिए परिस्थितियाँ अनुकूल रही होंगी जो अपना जीवन पूर्णतः थल पर बिता सकते होंगे क्योंकि उस समय खाद्य पदार्थों की स्पर्धा कम थी तथा शत्रु भी कम होंगे। एसे जन्तुओं को विकास के लिए जल के पास आने की आवश्यकता नहीं होती थी। धीरे-धीरे ऐसे जीवों का विकास हुआ जिनके अण्डे मोटे थे जो सूखे वातावरण में सूखते नहीं थे। इन अण्डों में पर्याप्त संचित भोजन की आवश्यकता हुई। सरीसृपों (सर्प छिपकलियाँ) तथा पक्षियों में ऐसे ही अण्डे विकसित हुए जिन्हें क्लीडॉइक अण्डे (Cliciodic eggs) कहा जाता हैं। कुछ कीटों में भी ऐसे अण्डे विकसित हुए।
          कुछ उभयचरों जैसे - पाइपा अमेरिकाना में मादा की पीठ पर गर्त उपस्थित होती हैं। जनन काल में नर मादा की पीठ पर निषेचित अण्डों को एकत्रित कर देता है जो इन गर्तों में फँस जाते हैं। अण्डों से विकसित पूँछ अत्यन्त संवहनीय होती है जो मादा से रक्तीय सम्पर्क स्थापित कर पोषक पदार्थ अवशोषित करती हैं।

एम्नियोटा समूह (सरीसृप, पक्षी एवं स्तनधारी) में सरीसृप वर्ग के अधिकांश प्राणी अण्डज होते हैं, परंतु कुछ सर्प एवं छिपकलियाँ जरायुज भी होती हैं। पक्षियों में जरायुजता नहीं पाई जाती हैं। सभी पक्षी अण्डज होते हैं, क्योंकि जरायुजता पक्षियों की उड़ान-क्षमता को स्पष्ट रूप से अवरोधित करती हैं।

          जन्तु जगत में सर्वप्रथम जरायुजता पेरीपेट्स में देखी गई थी। इस जंतु में निषेचन आंतरिक होता हैं तथा गर्भाशय में परिवर्धन होता हैं। आर्थोपोड़ा संघ के वर्ग-ऐरेक्निडा के प्राणियों जैसे- बिच्छुओं (Scorpions) में भी जरायुजता मिलती हैं क्योंकि इन प्राणियों में आन्तरिक निषेचन होता हैं। परिवर्धन के दौरान शिशु पोषण व सुरक्षा माता से प्राप्त करते हैं। जन्म के पश्चात् भी मादा इन्हें सुरक्षा प्रदान करती हैं।
          कॉर्डेटा में सर्वप्रथम जरायुजता यूरोकॉर्डेटा (Urochordata) में देखी गई हैं। साल्पा में लैंगिक प्रावस्था जरायुज होती हैं। इस जन्तु में आंतरिक निषेचन पाया जाता हैं। परिवर्धन ग्रसनी की दीवार पर एक प्लेसैन्टा के भीतर होता हैं। यह प्लेसेन्टा भ्रूण को पोषण प्रदान करती हैं।
मछलियों में जरायुजता (Viviparity) पाई जाती हैं। मछलियाँ अधिकतर अण्डज या अण्डप्रज ((Oviparous) होती है तथा अपने चारों ओर जल में बहुत सारे अण्डे देती हैं, जहाँ निषेचन एवं परिवर्धन होता हैं। परन्तु कई उपास्थिल मछलियाँ (Cartilaginous fishes) तथा कुछ अस्थिल मछलियाँ (Bony fishes) जरायुज होती हैं। ये पूर्ण विकसित शिशु को जन्म देती हैं। इन मछलियों के नर में विशिष्ट मैथुनांग पाए जाते हैं, जिन्हें क्लैस्पर्स (Claspers) कहते हैं। मैथुनांग जिनके द्वारा मादा की अण्डवाहिनी में शुक्राणु प्रवेश कराए जाते हैं। निषेचन एवं परिवर्धन आंतरिक होता हैं, जो अण्डाशय अथवा अण्डवाहिनी में होता हैं। आंतरिक परिवर्धन के समय परिवर्धनशील गुणों को आंशिक रूप से भोजन पीतकी खाद्य पदार्थों से तथा आंशिक रूप से योक-सेक-प्लैसेंन्टा (Yolk-sac-placenta) से प्राप्त होता हैं। स्कोलियोडॉन (Scoliodon) में अण्डवाहिनी का पीछे का भाग चौड़ा होकर गर्भाशय बना लेता हैं। इसमें अण्डों का परिवर्धन हो सकता है एवं यह बच्चों को जन्म देती हैं। प्रत्येक गर्भाशय में 30 प्रतिशत भ्रूणों का परिवर्धन हो सकता हैं। इनकी संख्या जाति पर निर्भर करती हैं। परिवर्धन की प्रारम्भिक अवस्थाओं में प्रत्येक भ्रूण के साथ-साथ एक नलिकाकार पीतकवृन्त (Yolk static) बना होता हैं जो एक सिरे पर भ्रूण की आंत्र से दूसरे सिरे पर एक पीतक कोश के साथ जुड़ा होता हैं, पीतक कोश में भ्रूण के पोषण के लिए पीतक भरा होता हैं। बाद की अवस्थाओं में अब पीतक लगभग गर्भाशय की दीवार में गड़ जाता है और तब उसे पीतक कोश प्लैसेन्टा (Yolk-sac-placenta) कहते हैं। इसके द्वारा भ्रूण को गर्भाशय ऊत्तकों में से पोषण प्राप्त होता हैं। प्रत्येक भ्रूण की अपनी-अपनी प्लैसेन्टा रज्जुएं और अपने-अपने पृथक् प्लैसेन्टा होते हैं। प्लैसेन्टा रज्जु में बहुसंख्यक कोमल नलिकाकार प्रवर्ध निकले होते हैं, जिन्हें उपांगिकाएँ कहते हैं। उपांगिकाएँ ऊत्तक की बनी होती हैं।
         
          रेप्टीलिया में वाइपर सर्प में जरायुजता पाई जाती हैं। वाइपर सर्प आंतरिक निषेचन होता है एवं ये बच्चे अण्डे देते हैं। वाइपर में अण्डवाहिनी का पिछला भाग फूला होता है जहाँ भ्रूणों का परिवर्धन होता हैं। भ्रूण अण्डवाहिनी की भित्ति प्लैसेन्टा द्वारा पोषण प्राप्त करता हैं।
          स्तनधारियों (Mammals) में उपवर्ग प्रोटोथीरिया (Prototheria) के सदस्यों को छोड़कर तो अण्डज अथवा अण्डजरायुज होते हैं एवं बाकी के स्तनधारी जरायुज होते हैं। जरायुजता के फलस्वरूप् इनके विकासशील भ्रूण को पीतक की आवश्यकता होती हैं। अतः इनके अण्डाणु सूक्ष्मपीतकी (Microlecithal) अथवा अपीतकी होते हैं।

Comments

Popular Posts

B.Sc Part-III Practical Records Complete PDF Free Download

पाचन की कार्यिकी (Physiology of Digestion)

1. मुखगुहा में पाचन (Digestion in mouth) - पाचन की प्रक्रिया यांत्रिक एवं रासायनिक विधियों द्वारा सम्पन्न होती हैं। मुखगुहा के मुख्यतः दो कार्य होते हैं- (अ) भोजन को चबाना व (ब) निगलने की क्रिया।

ओर्निथिन चक्र (Ornithine cycle)

यकृत में अमोनिया से यूरिया बनाने की क्रिया भी होती हैं। यह एक जटिल रासायनिक प्रतिक्रिया है , जिसे ऑर्निथिन चक्र (Ornithine cycle) कहते हैं। इसी का नाम क्रेब्स-हैन्सेलेट (Krebs-Henslet cycle) चक्र भी हैं। यूरिया बनने की संपूर्ण प्रक्रिया एक चक्रीय प्रक्रिया हैं तथा इसमें अमोनिया , कार्बनडाइऑक्साइड एवं अमीनो अम्ल का समूह भाग लेते हैं। इसलिए ही इसे ‘ ऑर्निथीन-ऑर्जिनीन चक्र ’ (Ornithine-Arginine cycle) भी कहते हैं। यह निम्न पदों में पूरा होता हैं -   Ornithine cycle