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श्वसन एवं गैसों का विनिमय (Breathing & Exchange of Gases)



श्वसन वह प्रक्रिया हैं, जिसमें ऑक्सीजन को भोजन के ऑक्सीकरण के लिए वातावरण से शरीर के अंदर लिया जाता हैं, ताकि ऊर्जा उत्पन्न हो सके तथा इस प्रक्रिया में उत्पन्न कार्बनडाईऑक्साइड को बाहर निकाला जाता हैं।


श्वसन के प्रकार (Types of Respiration) -


1.प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष श्वसन (Direct & Indirect Respiration) -

प्रत्यक्ष श्वसन -
इसमें शरीर की कोशिकाओं में उपस्थित कार्बनडाईऑक्साइड व बाह्य वातावरण में उपस्थित ऑक्सीजन के बीच गैसों का विनिमय बिना रक्त के प्रत्यक्ष रूप से होता हैं। इसमें गैसों का विनिमय विसरण के सिद्धांत पर आधारित हैं। उदाहरण - एककोशिकीय जीव जैसे- वायवीय जीवाणु, प्रोटिस्टा, बहुकोशिकीय जीव जैसे- स्पंज, सिलेंटरेट्स, चपटेकृमि, गोलकृमि, कीट आदि।

अप्रत्यक्ष श्वसन -
इसमें शरीर की कोशिकाओं व बाह्य वातावरण की गैसों के बीच प्रत्यक्ष रूप् से संपर्क नहीं होता । यह बड़ें व जटिल जीवों में पाया जाता हैं। इनमें ऑक्सीजन व कार्बनडाईऑक्साइड के परिवहन के लिए रक्त पाया जाता हैं।


2.अवायवीय व वायवीय श्वसन (Anaerobic & Aerobic Respiration) -

अवायवीय श्वसन -
ऑक्सीजन के अनुपस्थिति में संपन्न होने वाला श्वसन अवायवीय श्वसन कहलाता हैं। उदाहरण- यीस्ट में एल्कोहॉल का निर्माण व पेशी कोशिकाओं में अवायवीय श्वसन के कारण लैक्टिक अम्ल का निर्माण।

वायवीय श्वसन -
वे सभी भौतिक व रासायनिक अभिक्रियाऐं जिनमें वायुमण्डलीय ऑक्सीजन शरीर की कोशिकाओं में भोजन का ऑक्सीकरण कर ऊर्जा व कार्बनडाईऑक्साइड उत्पन्न करती हैं। श्वसन के अंतर्गत आती हैं।



वायवीय श्वसन की प्रावस्थायें -

वायवीय श्वसन की निम्न तीन प्रावस्थाऐं हैं -
अ.बाह्य श्वसन -
इस प्रावस्था के अंतर्गत वातावरणीय ऑक्सीजन व रक्त में उपस्थित कार्बनडाईऑक्साइड का गैसीय आदान-प्रदान होता हैं। यह पूर्णतया एक भौतिक प्रक्रिया हैं, जिसमें ऊर्जा का उत्पादन नहीं होता हैं।

ब. आंतरिक श्वसन -
इसके अंतर्गत रक्त की ऑक्सीजन व कोशिकाओं की कार्बनडाईऑक्साइड के बीच विनिमय होता हैं। यह एक भौतिक रासायनिक प्रक्रिया हैं, जिसमें ऊर्जा का उत्पादन होता हैं।

स. कोशिकीय श्वसन -
इसके दौरान कोशिकाऐं ऑक्सीजन का उपयोग कर ऊर्जा उत्पादन करती हैं तथा कार्बनडाईऑक्साइड मुक्त करती हैं।


जंतुओं के श्वसनांग 
क्रम संख्या
श्वसनांग 
उदाहरण/जंतु का नाम
1
सामान्य शरीर सतह
स्पंज, सीलेंट्रेटा, चपटेकर्मी
2
नम त्वचा
केंचुआ, मेंढक
3
श्वासनली
कीट
4
गिल
जलीय अर्थ्रोपोड़ा, मोलस्का व मछलियाँ
5
फेंफड़े
सरीसर्प, पक्षी व स्तनधारी


मानव श्वसन तंत्र (Human Respiratory System)



Human respiratory system


1.नासा गुहा (Nasal Cavity) -
नासा गुहा श्वसन तंत्र का प्रथम भाग हैं। यह बाहर की तरफ नासा छिद्रों के द्वारा खुलती हैं। नासा गुहा को नासा पट्ट द्वारा दो नासा कोष्ठों में बाँटा गया हैं तथा प्रत्येक नासा कोष्ठ में निम्न तीन भाग होते हैं -

अ.वेस्टिबुलर (Vestibular) -
यह नासा छिद्रों से आरंभ होता हैं तथा इसमें तैलीय ग्रन्थियाँ व रोम पाए जाते हैं, जो बड़े धूल के कणों के प्रवेश को रोकते हैं।

ब. रेस्पाइरट्री (Respiratory) -
यह अत्यधिक संवहनीय भाग हैं, जो श्वसन में ग्रहण की गई वायु के ताप नियमन तथा उसे नम बनाने से संबंधित हैं। प्रत्येक नासा कोष्ठ की दीवार से तीन अस्थिल उभार निकलते हैं, जिन्हें Nasal Conchae कहते हैं। ये तीन होते हैं- अधोवर्ती, मध्यवर्ती, निम्नवर्ती (Superior, Middle, Inferior) । अधोवर्ती घ्राण भाग में पाया जाता हैं, जबकि निम्नवर्ती व मध्यवर्ती, श्वसनी भाग में पाए जाते हैं। Nasal Conchae श्लेष्म झिल्ली से ढके होते हैं तथा यह नासा कोष्ठों का सतही क्षेत्रफल बढ़ाते हैं।

स. घ्राण भाग (Olfactory) -
यह ऊपरी भाग हैं, जो घ्राण एपिथिलियम से आस्तरित रहता हैं तथा सूँघने से संबंधित हैं।


2. ग्रसनी (Pharynx) -
ग्रसनी के दो भाग होते हैं – नेसोफैरिंक्स (Nasopharynx) व ओरोफैरिंक्स (Oropharynx)। नेसोफैरिंक्स श्वसन मार्ग से संबंधित होता हैं, जबकि ओरोफैरिंक्स पाचन तंत्र के मार्ग से संबंधित होता हैं।

          नासा गुहा से वायु ग्रसनी में प्रवेश करती हैं। ग्रसनी भोजन व वायु दोनों के लिए एक सम्मिलित पथ हैं। ग्रसनी एक संकरे क्षेत्र के द्वारा श्वासनली में खुलती हैं, इसे ग्लॉटिस कहा जाता हैं। ग्लॉटिस में भोजन के प्रवेश को रोकने के लिए इस पर एक त्रिकोणीय ढक्कन पाया जाता हैं, जिसे एपिग्लॉटिस कहते हैं।


3. स्वरयंत्र (Larynx) -
स्वरयंत्र अनियमित आकार की उपास्थियों से मिलकर बना होता हैं, जो आपस में स्नायुओं (Ligments) व झिल्लियों के द्वारा जुड़ी होती हैं। इसकी मुख्य उपास्थियाँ निम्न हैं -

.थायरॉइड उपास्थि (Thyroid) -
यह सबसे उभरी हुई, अंग्रेजी के सीआकार की उपास्थि हैं, जो पृष्ठीय भाग में अधूरी होती हैं। इसे एड्म्स एप्पल (Adam’s Apple) कहा जाता हैं।

. क्रिकॉइड उपास्थि (Cricoid) -
यह थायरॉइड उपास्थि के नीचे स्थित होती हैं तथा इसकी आकृति सिंग्लेट रिंग के समान होती हैं।

. एरेटिनॉइड उपास्थि (Aretenoid) -
ये दो होती हैं, जो पिरामिड के आकार की होती हैं तथा स्वरयंत्र की पश्च भित्ति बनाती हैं।

. कोर्निकुलेट उपास्थि (Corniculate) -
ये दो शंकुआकार की गाँठ हैं, जो एरेटिनॉइड उपास्थियों के शीर्षों पर उपस्थित होती हैं।

. क्यूनिफॉर्म उपास्थि  (Cuneiform) -
ये दो छोटी दीर्घीकृत क्लब शेप्ड गाँठ हैं, जो एपिग्लॉटिस को एरेटिनॉइड से जोड़ती हैं।

. एपिग्लॉटिस उपास्थि (Epiglottis) -
यह एकल पत्तीनुमा उपास्थि हैं।

अतः स्वरयंत्र में कुल 9 उपास्थियाँ पाई जाती हैं, जिनमें से तीन युग्मित व तीन एकल/अयुग्मित होती हैं। थायरोहायरॉइड झिल्ली ऊपर स्थित हायॉइड अस्थि को नीचे स्थित थायरॉइड उपास्थि से जोड़ती हैं। स्वरयंत्र में दो जोड़ी वाक् रज्जु (Vocal Cord) पाए जाते हैं - एक जोड़ी कूट वाक् रज्जु (False Vocal Cord) व एक जोड़ी सत्य वाक् रज्जु (True Vocal Cord) । जब स्वरयंत्र में बल पूर्वक वायु प्रवेश करती हैं, तो इससे वाक् रज्जुओं में कंपन्न होता हैं, जिससे ध्वनि उत्पन्न होती हैं। ध्वनि के तारत्व (Pitch)  का निर्धारण वाक् रज्जुओं में उत्पन्न तनाव के द्वारा होता हैं। अधिक तनाव से अधिक तारत्व की ध्वनि उत्पन्न होती हैं।


4. श्वासनली (Trachea) -
यह एक 12सेमी. लम्बी नलिका हैं, जिसकी भित्ति पर सीआकार के छल्ले पाए जाते हैं। ये छल्ले हायलिन उपास्थि के बने होते हैं तथा पृष्ठ भाग से अधूरे होते हैं। इन छल्लों के द्वारा श्वासनली की भित्ति पिचकने से बचाया जाता हैं। श्वासनली की भित्ति अंदर से कूटस्तरित कशाभिकीय स्तंभाकार उपकला के द्वारा आस्तरित होती हैं। भित्ति पर स्थित पक्ष्माभ अतिरिक्त श्लेष्म को बाहर धकेलने का काम करते हैं।


5. श्वसनी (Bronchi) -
श्वसनी की भित्ति भी उपास्थिल छल्लों के द्वारा ढ़की रहती हैं। प्रत्येक श्वसनी विभाजित व पुर्नविभाजित होकर श्वसनिकाऐं (Bronchioles) बनाती हैं। श्वसनी की कूटस्तरित कशाभिकीय स्तंभाकार  उपकला धीरे-धीरे परिवर्धित होकर श्वसनिकाओं में कशाभिकीय सरल घनाकार उपकला का रूप ले लेती हैं। उपास्थि के अपूर्ण छल्ले दूरस्थ श्वसनिकाओं में प्रतिस्थापित होकर उपास्थिल प्लेट्स का रूप ले लेते हैं। अंतिम श्वसनिका आगे विभाजित होकर श्वसनी-श्वसनिका बनाती हैं तथा श्वसनी-श्वसनिका कूपिकीय नलिकाओं से होती हुई कूपिकाओं में खुलती हैं। श्वसनी-श्वसनिका व कूपिकाओं में सरल शल्की उपकला पाई जाती हैं।


6. फेंफड़े (Lungs) -
फेंफड़े वक्षीय गुहा का अधिकतम भाग घेरते हैं। फेंफड़ों में प्रत्येक श्वसनी कईं श्वसनिकाओं में विभाजित होती हैं तथा प्रत्येक श्वसनिका कूपिकीय नलिका से होती हुई कूपिका में समाप्त होती हैं। फेंफड़े एक पतली दोहरी परत से ढ़के होते हैं, जो सरल शल्की उपकला की बनी होती हैं, इसे प्ल्यूरा (Pleura) कहते हैं। बाह्य या (Parietal Pleura) प्ल्यूरा वक्षीय गुहा से चिपकी होती हैं, जबकि आंतरिक या (Visceral Pleura) प्ल्यूरा फेंफड़ों से चिपकी होती हैं। दोनों प्ल्यूरल झिल्लियों के मध्य स्थित अवकाश प्ल्यूरल गुहा (Pleural Cavity) कहलाता हैं। जिसमें फुफ्फुसीय तरल (Pleural Fluid) भरा होता हैं। यह फुफ्फुसीय तरल फेंफड़ों के घर्षण को कम करता हैं तथा इनकी गति को आसान करता हैं। प्ल्यूरा में प्रदाह के कारण प्ल्यूरिसिटी (Pleuricity) रोग हो जाता हैं।

          जन्म के समय फेंफड़ें गुलाबी रंग के होते हैं, परन्तु वयस्कों में ये गहरे धूसर रंग के हो जाते हैं, क्योंकि कार्बनिक पदार्थ जम जाते हैं। धूम्रपान करने वालों तथा प्रदूषकों के संपर्क में रहने वालों में फेंफड़ों का रंग और अधिक काला पड़ जाता हैं। दाँया फेंफड़ा, बाँया फेंफडें की तुलना में 2.5सेमी. छोटा होता हैं तथा डायफ्राम की स्थिति से ऊपर उठा रहता हैं, ताकि नीचे स्थित यकृत को पूरा स्थान उपलब्ध हो पाऐं। दाऐं फेंफड़ें में 2 खाँच (Fissure) होते हैं। ये खाँच इन्हें तीन पालियों में बाँटते हैं - दाँया अधोवर्ती, दाँया मध्यवर्ती व दाँया निम्नवर्ती (Right superior, Right middle, Right Inferior) । बाँया फेंफड़ा, दाँऐं फेंफड़ें की तुलना में लंबा व संकरा होता हैं, क्योंकि इसमें हृदय खाँच’ (Cardiac Notch) पाई जाती हैं, जो तिरछे स्थित हृदय को स्थान उपलब्ध करवाती हैं। बाँया फेंफडें में केवल एक खाँच (Fissure) पाया जाता हैं। जो इसे दो पालियों में बाँटता हैं - बाँया अधोवर्ती व बाँया निम्नवर्ती (Left superior, Left Inferior)


श्वसन की क्रियाविधि (Mechanism of Respiration) -
मनुष्य में श्वसन से संबंधित गतियों के लिए अंतरापर्शुक पेशियाँ (Intercostal Muscles) व डायफ्राम उपयोगी हैं। श्वसन के निम्न दो पद हैं - . अन्तःश्वसन या निःश्वसन (Inspiration)  . बहिश्वसन या उच्छश्वसन (Expiration)

. अन्तःश्वसन या निःश्वसन (Inspiration) -
इसके दौरान वातावरण से वायु को फेंफड़ों की कूपिकाओं तक पहुँचाया जाता हैं। यह एक सक्रिय प्रक्रम हैं, जिसमें ऊर्जा की आवश्यकता हैं। अन्तःश्वसन के दौरान निम्न दो प्रकार की पेशियाँ काम आती हैं -
अ. फ्रेनिक पेशियाँ (Phrenic Muscles) -
ये माँसपेशियाँ डायफ्राम से पसलियों व कशेरूकदण्ड तक फैली होती हैं।

ब. बाह्य अंतरापर्शुक पेशियाँ (External Intercostal Muscles) -
12 जोड़ी पसलियों के बीच स्थित 11 जोड़ी माँसपेशियाँ हैं। जब फ्रेनिक पेशियों में संकुचन होता हैं, तो डायफ्राम सीधा हो जाता हैं। जब बाह्य अंतरापर्शुक पेशियों में संकुचन होता हैं, तो पसलियाँ आगे की ओर, ऊपर की ओर, बाहर की ओर खींचती हैं। जिससे वक्षीय गुहा का आयतन बढ़ जाता हैं व दाब कम हो जाता हैं।

. बहिश्वसन या उच्छश्वसन (Expiration) -
इसके दौरान कार्बनडाईऑक्साइड को बाहर निकाला जाता हैं। विश्राम अवस्था में बहिश्वसन एक निष्क्रिय प्रक्रम हैं, जिसमें फ्रेनिक पेशियाँ व बाह्य अंतरापर्शुक पेशियों का शिथिलन होता हैं। जिससे वक्षीय गुहा का आयतन घट जाता हैं व दाब बढ़ जाता हैं तथा वायु फेंफड़ों से बाहर निकल जाती हैं। परंतु बलपूर्वक बहिश्वसन के दौरान निम्न माँसपेशियाँ संकुचित होती हैं -
अ. उदरीय माँसपेशियाँ (Abdominal Muscles) -
ये पसलियों से उदरीय अंगों तक फैली होती हैं तथा जब इनमें संकुचन होता हैं, तो उदरीय अंग डायफ्राम की तरफ (ऊपर की ओर) खींचते हैं, जिसमें डायफ्राम अधिक उत्तलाकार हो जाता हैं व वक्षीय गुहा का आयतन घट जाता हैं।

ब. आंतरिक अंतरापर्शुक पेशियाँ (Internal Intercostal Muscles) -
ये भी 11 जोड़ी माँसपेशियाँ हैं, जो 12 जोड़ी पसलियों के बीच स्थित होती हैं। जब इनमें संकुचन होता हैं, तो पसलियाँ अंदर की तरफ, पीछे की ओर, नीचे की ओर खींचती हैं, जिससे वक्षीय गुहा का आयतन घट जाता हैं, जिससे अत्यधिक मात्रा में वायु बाहर निकलती हैं।


फुफ्फुसीय आयतन (Pulmonary Volume) -

. ज्वारीय आयतन (Tidal Volume, TV) -
एक सामान्य श्वसन के दौरान निःश्वसित/उच्छश्वसित वायु का आयतन, ज्वारीय आयतन कहलाता हैं। इसका मान सामान्यतः 500 मिली. होता हैं।

. निःश्वसित संरक्षित आयतन (Inspiratory Reserve Volume, IRV) -
एक बलपूर्वक निःश्वसन से किसी व्यक्ति के द्वारा ग्रहण की गई वायु का आयतन, निःश्वसित संरक्षित आयतन कहलाता हैं। इसका मान 2500-3000 मिली. होता हैं।

. उच्छश्वसित संरक्षित आयतन (Expiratory Reserve Volume, ERV) -
एक बलपूर्वक उच्छश्वसन से एक व्यक्ति द्वारा बाहर निकाली गई वायु का आयतन उच्छश्वसित संरक्षित आयतन कहलाता हैं। इसका मान लगभग 1000-1100 मिली. होता हैं।

. अवशेषी आयतन (Residual Volume, RV) -
एक बलपूर्वक उच्छश्वसन के बाद भी बची हुई वायु का आयतन, अवशेषी आयतन कहलाता हैं। इसका मान लगभग 1100-1200 मिली. होता हैं।


फुफ्फुसीय क्षमताऐं (Pulmonary Capacities) -

. निःश्वसन क्षमता (Inspiratory Capacity, IC)-
एक सामान्य उच्छश्वसन के बाद किसी व्यक्ति द्वारा निःश्वसित वायु का आयतन निःश्वसन क्षमता कहलाता हैं।
निःश्वसन क्षमता = ज्वारीय आयतन + निःश्वसित संरक्षित आयतन

. उच्छश्वसन क्षमता (Expiratory Capacity, EC) -
एक सामान्य निःश्वसन के बाद किसी व्यक्ति द्वारा उच्छश्वसित वायु का आयतन उच्छश्वसन क्षमता कहलाता हैं।
उच्छश्वसन क्षमता = ज्वारीय आयतन + उच्छश्वसित संरक्षित आयतन

. कार्यात्मक अवशेषी क्षमता (Functional Residual Capacity, FRC) -
एक सामान्य उच्छश्वसन के बाद फेंफड़ों में शेष बची वायु का आयतन कार्यात्मक अवशेषी क्षमता कहलाता हैं।
कार्यात्मक अवशेषी क्षमता = उच्छश्वसित संरक्षित आयतन + अवशेषी आयतन

. जैव क्षमता (Vital Capacity, VC) -
एक बलपूर्वक उच्छश्वसन के बाद किसी व्यक्ति द्वारा ली जा सकने वाली वायु का अधिकतम आयतन, जैव क्षमता कहलाता हैं।
अथवा
एक बलपूर्वक निःश्वसन के बाद किसी व्यक्ति द्वारा निकाली जा सकने वाली वायु का अधिकतम आयतन।
जैव क्षमता = ज्वारीय आयतन + निःश्वसित संरक्षित आयतन + उच्छश्वसित संरक्षित आयतन

. कुल फुफ्फुस क्षमता (Total Lung Capacity, TLC) -
एक बलपूर्वक निःश्वसन के अंत में फेंफड़ों में उपस्थित वायु का कुल आयतन कुल फुफ्फुस क्षमता कहलाता हैं।


Physiological Shunt and Shunted Blood -
जब Ventilation (उपलब्ध ऑक्सीजन) व Perfusion (उपलब्ध रक्त) का अनुपात सामान्य से कम होता हैं तब शिराओं के रक्त का एक हिस्सा फुफ्फुसीय केशिकओं में ऑक्सीजनीकृत्त नहीं हो पाता हैं, यह रक्त Shunted blood कहलाता हैं।
          सामान्य श्वसन के दौरान रक्त का कुछ हिस्सा (हृदय निकास का 2 प्रतिशत) ऑक्सीजनीकृत्त नहीं हो पाता हैं, इसे Physiological Shunt कहते हैं।

कार्यिकीरूप से मृत्त स्थल (Physiological dead space) -
जब कूपिकाओं में Ventilation उच्च हो व Perfusion निम्न हो, तो कोशिकाओं में उपस्थित कुछ ऑक्सीजन, रक्त को ऑक्सीजनित करने के काम नहीं आती कूपिकाओं में स्थित यह वायु Physiological dead space कहलाती हैं। यह वह वायु हैं, जिसे श्वास के द्वारा अंदर तो लिया गया पर यह गैसीय विनिमय में भाग नहीं लेती। इसका मान लगभग 150 मिली. होता हैं।


गैसीय विनिमय - 


Exchange of gases



कूपिकाऐं गैसीय विनिमय की प्राथमिक स्थल हैं। गैसों का विनिमय रक्त व ऊत्तकों के बीच भी होता हैं। इन स्थलों पर ऑक्सीजन व कार्बनडाईऑक्साइड का विनिमय मुख्यतया सरल विसरण के द्वारा होता हैं, जो दाब/सान्द्रता प्रवणता पर आधारित हैं। गैसों के विनिमय के लिए कूपिकाओं में श्वसन कला का निर्माण होता हैं। श्वसन कला के घटक निम्न हैं - कूपिकीय उपकला, कूपिकीय आधारकला, केशिकीय आधारकला, अंतराली अवकाश, केशिकीय उपकला।
कार्बनडाईऑक्साइड की विसरण क्षमता ऑक्सीजन की तुलना में 20 गुना अधिक होती हैं तथा ऑक्सीजन की विसरण क्षमता नाइट्रोजन की तुलना में 2 गुनी होती हैं।

Surfactant - यह एक सतह सक्रिय पदार्थ हैं, जो कूपिकीय उपकला कोशिकाओं के द्वारा स्त्रावित होता हैं। कूपिकाओं में लेसिथिन Surfactant की तरह कार्य करता हैं। यह कूपिकीय तरल व वायु के पृष्ठ तनाव को कम करता हैं, जिससे कूपिकाऐं पिचकने से बच जाती हैं।


बाह्य श्वसन या कूपिकीय स्तर पर विनिमय -
वायुमण्डल में ऑक्सीजन का आंशिक दाब 159mmHg तथा कार्बनडाईऑक्साइड का आंशिक दाब 0.3 mmHg होता हैं। कूपिकीय वायु में ऑक्सीजन का आंशिक दाब 104 mmHg  होता हैं तथा फुफ्फुसीय धमनियों में ऑक्सीजन का आंशिक दाब 40 mmHg  होता हैं। अतः कूपिकीय वायु से ऑक्सीजन तीव्रता से रक्त केशिकाओं में विसरीत होती हैं।
          इसी प्रकार कूपिकीय वायु में कार्बनडाईऑक्साइड का आंशिक दाब 40 mmHg  होता हैं, जबकि रक्त केशिकाओं में इसका आंशिक दाब 45 mmHg होता हैं। अतः कार्बनडाईऑक्साइड तीव्रता से रक्त केशिकाओं से निकलकर कूपिकाओं में आ जाती हैं।


आंतरिक श्वसन या ऊत्तक स्तर पर विनिमय -
ऊत्तकों व रक्त के बीच भी गैसीय विनिमय आंशिक दाबों में अंतर के कारण ही होता हैं। ऊत्तकों में पहुँचने वाले धमनी तंत्र के रक्त में ऑक्सीजन का आंशिक दाब व कार्बनडाईऑक्साइड का आंशिक दाब क्रमशः 95 mmHg  40 mmHg  होते हैं, जबकि ऊत्तकीय कोशिकाअें में ऑक्सीजन व कार्बनडाईऑक्साइड का आंशिक दाब क्रमशः 40 mmHg  45 mmHg  होते हैं। अतः ऑक्सीजन तीव्रता से रक्त को छोड़कर ऊत्तक में आ जाती हैं तथा कार्बनडाईऑक्साइड तीव्रता से ऊत्तकों को छोड़कर रक्त में चली जाती हैं।


रक्त में गैसों का परिवहन -
. ऑक्सीजन का परिवहन -
जितनी ऑक्सीजन वायु से रक्त में आती हैं, उसकी लगभग 3 प्रतिशत तो रूधिर प्लाज्मा में घुल जाती हैं। शेष 97 प्रतिशत ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन से क्रिया करके ऑक्सीहीमोग्लोबिन बना लेती हैं। एक हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन के 4 अणुओं से संयोग करता हैं, क्योंकि प्रत्येक हीमोग्लोबिन में 4 आयरन आयन होते हैं। एक ग्राम हीमोग्लोबिन 1.34मिली. ऑक्सीजन का परिवहन करता हैं तथा 100मिली. रक्त में औसतन 15ग्राम हीमोग्लोबिन होता हैं। अतः 100 मिली. रक्त लगभग 19.8 मिली. ऑक्सीजन का परिवहन करता हैं। ऑक्सीजन हीमोग्लोबिन का ऑक्सीकरण नहीं करती। ऑक्सीहीमोग्लोबिन का बनना ऑक्सीजनीकरण कहलाता हैं, क्योंकि ऑक्सीहीमोग्लोबिन में आयरन की संयोजकता +2 ही रहती हैं। कुछ गैसे जैसे- ओजोन हीमोग्लोबिन का ऑक्सीकरण कर देती हैं तथा ऑक्सीकृत हीमोग्लोबिन मीथेमोग्लोबिन (Methamoglobin) कहलाता हैं। जिसमें हीमोग्लोबिन का आयरन परमाणु +2 से +3 ऑक्सीकरण अवस्था में परिवर्तित हो जाता हैं।


ऑक्सीहीमोग्लोबिन वियोजन वक्र - 


oxygen-haemoglobin dissociation curve



हीमोग्लोबिन की प्रतिशत संतृप्तता एवं ऑक्सीजन की सांद्रता के मध्य आरेखित वक्र, वियोजन वक्र कहलाता हैं। ऑक्सीजन का हीमोग्लोबिन के साथ संयोग उत्क्रमणीय होता हैं तथा ऑक्सीजन का कम आंशिक दाब ऑक्सीहीमोग्लोबिन के विखण्डन को प्रेरित करता हैं।

कार्बनडाईऑक्साइड की अधिक सान्द्रता भी ऑक्सीहीमोग्लोबिन के विखण्डन को प्रेरित करती हैं तथा ऑक्सीहीमोग्लोबिन के विखण्डन पर कार्बनडाईऑक्साइड की सांद्रता का प्रभाव बोहर प्रभाव कहलाता हैं।

अम्लीयता ऑक्सीहीमोग्लोबिन के विखण्डन को प्रेरित करती हैं। ऑक्सीहीमोग्लोबिन के विखण्डन पर पीएच का प्रभाव रूट प्रभाव कहलाता हैं।

वियोजन वक्र के दाँई ओर विस्थापित होने से तात्पर्य हैं कि ऑक्सीहीमोग्लोबिन से ऑक्सीजन शीघ्र विघटित होती हैं तथा बाँई ओर विस्थापित होने से तात्पर्य हैं कि ऑक्सीहीमोग्लोबिन से ऑक्सीजन शीघ्रता से विघटित नहीं होगी।

बाँई ओर विस्थापन - यह हीमोग्लोबिन की ऑक्सीजन के साथ बंधुता में वृद्धि के कारण होता हैं, जो कि ऑक्सीजन व कार्बनडाईऑक्साइड के आंशिक दाब में कमी, पीएच में वृद्धि, तापमान में कमी के कारण होता हैं।

दाँई ओर विस्थापन - यह हीमोग्लोबिन की ऑक्सीजन के साथ बंधुता में कमी के कारण होता हैं। जो कार्बनडाईऑक्साइड व ऑक्सीजन के आंशिक दाब बढ़ने पर, पीएच के कम होने पर, तापमान के बढ़ने पर होता हैं।

हीमोग्लोबिन की ऑक्सीजन से संतृप्तता 97 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती हैं। ऑक्सीजन के 30 mmHg  आंशिक दाब पर हीमोग्लोबिन 50 प्रतिशत संतृप्त होता हैं, इसे पी-50 (P50) कहते हैं। अथवा ऑक्सीजन का वह आंशिक दाब जिस पर हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन के साथ 50 प्रतिशत संतृप्त होता हैं, पी-50 (P50) कहलाता हैं।

भ्रूणीय हीमोग्लोबिन की बंधुता सामान्य हीमोग्लोबिन से अधिक होती हैं, अतः भ्रूणीय हीमोग्लोबिन की उपस्थिति में वक्र बाँई ओर विस्थापित होता हैं। माँसपेशियों में उपस्थित मायोग्लोबिन (Myoglobin) भी ऑक्सीजन से उच्च बंधुता दर्शाता हैं, परंतु इसमें केवल एक आयरन होता हैं। अतः इसकी उपस्थिति में ग्राफ अतिपरवलयाकार प्राप्त होता हैं।


कार्बनडाईऑक्साइड का परिवहन –
उच्च विलयनशीलता के कारण रक्त द्वारा कार्बनडाईऑक्साइड का परिवहन अपेक्षाकृत्त आसानी से होता हैं। प्रति 100 मिली. रक्त 4.2 मिली. कार्बनडाईऑक्साइड को ऊत्तकों से कूपिकाओं तक पहुँचाता हैं। कार्बनडाईऑक्साइड के परिवहन की 3 विधियाँ हैं -

. प्लाज्मा में विलिन होकर -
लगभग 5-7 प्रतिशत कार्बनडाईऑक्साइड का रक्त के प्लाज्मा में विलीन होकर परिवहन होता हैं।

. बाईकार्बोनेट के रूप में -
ऊत्तकों से उत्पादित कार्बनडाईऑक्साइड स्वतः रक्त प्रवाह में विसरीत होकर लाल रक्त कणिकाओं के अंदर पहुँचती हैं। जहाँ वो जल से क्रिया कर कार्बोनिक अम्ल बनाती हैं। यह प्रतिक्रिया रक्ताणुओं में उपस्थित एंजाइम कार्बोनिक एन्हाइड्रेज द्वारा उत्प्रेरित की जाती हैं तथा यह एक अत्यधिक तीव्र अभिक्रिया हैं। बनने के तुरंत पश्चात् कार्बोनिक अम्ल H+ HCO3- में वियोजित हो जाता हैं। लाल रक्त कणिकाओं मेंउपस्थित ऑक्सीहीमोग्लोबिन कम अम्लीय होता हैं एवं पोटेशियम आयन के साथ अभिक्रिया कर पोटेशियम-ऑक्सीहीमोग्लोबिन संकुल के रूप में रहती हैं। कार्बोनिक अम्ल द्वारा मुक्त हाइड्रोजन आयन हीमोग्लोबिन से पौटेशियम को विस्थापित कर हीमोग्लोबिनिक अम्ल बनाते हैं।

लाल रक्त कणिकाओं में बने बाईकार्बोनेट आयन सान्द्रता प्रवणता के साथ विसरीत होकर प्लाज्मा में चले जाते हैं। इसकी प्रतिक्रिया के रूप में आयनिक संतुलन बनाए रखने के लिए क्लोराइड आयन लाल रक्त कणिकाओं से प्लाज्मा में चले जाते हैं, इसे हेमबर्गर प्रक्रिया / क्लोराइड शिफ्ट (Hemberger effect / Chloride shift) कहते हैं।

लाल रक्त कणिकाओं के अंदर क्लोराइड आयन पौटेशियम से क्रिया करके पौटेशियम क्लोराइड बनाते हैं। जबकि बाईकार्बोनेट आयन प्लाज्मा में सोडियम से जुड़कर सोडियम बाईकार्बाेनेट बनाते हैं। लगभग 70 प्रतिशत कार्बनडाईऑक्साइड का परिवहन ऊत्तकों से कूपिकाओं तक इसी रूप में होता हैं।

. कार्बएमीनोहीमोग्लोबिन के रूप में -
कार्बनडाईऑक्साइड हीमोग्लोबिन के एमीन समूह से जुड़कर कार्बएमीनोहीमोग्लोबिन बनाती हैं। कार्बनडाईऑक्साइड का हीमोग्लोबिन के साथ संयोजन प्रतिवर्ती प्रतिक्रिया हैं। लगभग 23 प्रतिशत कार्बनडाईऑक्साइड का परिवहन इस प्रकार सेहोता हैं।


कार्बनडाईऑक्साइड का फेंफड़ों की कूपिकाओं में अभित्याग -
जब ऑक्सीजन रहित रक्त कूपिका में पहुँचता हैं, तो इसमें कार्बनडाईऑक्साइड प्लाज्मा में विलिन अवस्था में कार्बएमीनोहीमोग्लोबिन के रूप में एवं बाईकार्बोनेट के रूप में होती हैं। प्लाज्मा में विलीन कार्बनडाईऑक्साइड फुफ्फुसीय केशिकाअें से कूपिकाओं में विसरीत हो जाती हैं। कार्बएमीनोहीमोग्लोबिन भी कार्बनडाईऑक्साइड एवं हीमोग्लोबिन में विखण्डित हो जाता हैं। बाईकार्बोनेट से कार्बनडाईऑक्साइड को मुक्त करने के लिए कुछ प्रतिवर्ती प्रतिक्रियाऐं सम्पन्न होती हैं। जब फुफ्फुसीय रक्त का हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन ग्रहण करता हैं, तो H+ आयन मुक्त हो जाता हैं। तत्पश्चात् क्लोराइड व सोडियम आयन पौटेशियम क्लोराइड से रक्त में एवं सोडियमबाईकार्बोनेट से लाल रक्त कणिकाओं में मुक्त हो जाते हैं। HCO3-, H+ से क्रिया कर कार्बोनिक अम्ल बनाता हैं। अंततः यही कार्बोनिक अम्ल कार्बोनिक एन्हाइड्रेज एंजाइम की उपस्थिति में विखण्डित हो जाता हैं व कार्बनडाईऑक्साइड एवंज ल मुक्त करता हैं। इस प्रकार कार्बनडाईऑक्साइड को कूपिकाओं में मुक्त कर दिया जाता हैं। जब HCO3- एवं कार्बएमीनो यौगिक फेंफड़ों में पहुँचते हैं, तो इनका विखण्डन हो जाता हैं तथा ये कार्बनडाईऑक्साइड मुक्त कर देते हैं। इन पदार्थो के विखण्डन को ऑक्सीहीमोग्लोबिन प्रेरित करता हैं तथा इन पदार्थों के विखण्डन पर ऑक्सीहीमोग्लोबिन का यह प्रभाव हाल्डेन प्रभाव (Haldane’s effect)  कहलाता हैं।
          इस प्रक्रिया में ऑक्सीहीमोग्लोबिन एक प्रबल अम्ल की भांति व्यवहार करता हैं अर्थात् यह माध्यम में H+ आयन मुक्त करता हैं। ये H+, HCO3- व कार्बएमीनोहीमोग्लोबिन से जुड़कर उनके विखण्डन को प्रेरित करता हैं।


श्वसन का नियमन -
श्वसन की लय का नियंत्रण तंत्रिका तंत्र द्वारा किया जाता हैं तथा कठिन शारीरिक परिश्रम के समय माँग के अनुरूप श्वसन दर को बढ़ाया जा सकता हैं। अब तक कुल 3 श्वसन केन्द्रों की पहचान की जा चुकी हैं -
. पृष्ठ श्वसन केन्द्र -
यह मेड्युला ऑब्लोन्गेटा के पृष्ठ भाग में स्थित होता हैं। इस समूह द्वारा मुक्त तंत्रिकीय संवेग डायफ्राम तक संचरित होते हैं। यह श्वसन केन्द्र सामान्य संवादन के लिए उत्तरदायी हैं।

. अधरीय श्वसन केन्द्र -
यह भी मेड्युला ऑब्लोन्गेटा में स्थित होता हैं। सामान्य श्वसन के समय यह निष्क्रिय रहता हैं एवं इसमें इसकी कोई भूमिका नहीं होती हैं, लेकिन श्वसन की बढ़ी हुई माँग के समय इस समूह के श्वसन संकेतो द्वारा अंतःश्वसन व बहिश्वसन दोनों की माँग का नियंत्रण किया जाता हैं।

. न्युमोटेक्टिक श्वसन केन्द्र -
यह पोन्स में स्थित होता हैं। यह अन्तःश्वसन क्षेत्रों में संकेतों का संचारण करता हैं। प्रमुख रूप् से यह अन्तःश्वसन के स्विच बंद करने के केन्द्र को नियंत्रित करता हैं।

सामान्य अन्तःश्वसन में - पृष्ठ केन्द्र
बलपूर्वक अन्तःश्वसन में - पृष्ठ व अधर केन्द्र
सामान्य बहिश्वसन में - X
बलपूर्वक बहिश्वसन में - अधर केन्द्र

कार्बनडाईऑक्साइड एवं H+ आयन की सान्द्रता के कारण अन्तःश्वसन व निःश्वसन दानों के संकेतों की शक्ति बढ़ जाती हैं। ऑक्सीजन इस प्रकार का कोई सीधा प्रभाव नहीं डालती।


श्वसन को प्रभावित करने वाले कारक -
. रासायनिक कारक -
श्वसन केन्द्र रक्त में कार्बनडाईऑक्साइड सान्द्रता एवं रक्त की पीएच के प्रति संवेदनशील होता हैं। श्वसन केन्द्र ऑक्सीजन की सांद्रता के प्रति संवेदनशील नहीं होता हैं।

. भौतिक कारक -
जब कभी शरीर का तापमान बढ़ जाता हैं, तो श्वसन केन्द्र अधिक सक्रिय होकर श्वसन दर को बढ़ा देते हैं।

. संवेदी कारक -
रक्त वाहिनियों की भित्ति में कुछ रसायनग्राही उपस्थित होते हैं, जैसे- महाधमनी में arotic body, Carotid धमनी में Carotid body । ये संवेदांग रक्त में ऑक्सीजन सान्द्रता के लिए संवेदी होते हैं तथा कम ऑक्सीजन सान्द्रता पर श्वसन दर को बढ़ा देते हैं।


श्वसन संबंधी रोग - 

1.अस्थमा (दमा) -
इसमें श्वसनी और श्वसनिकाओं की शोथ (Inflamation)  के कारण सांस लेते समय घरघराहट (Wheezing)  होती हैं तथा सांस लेने में कठिनाई होती हैं। यह एक एलर्जिक रोग हैं।

2. श्वसनी शोथ -
यह श्वसनी में शोथ के कारण होता हैं, जिसके विशेष लक्षण हैं- श्वसनी में सूजन एवं जलन होना, जिससे लगातार खाँसी आती हैं।

3. वातस्फिति -
यह एक चिरकालिक रोग हैं। जिसमें कूपिका की भित्ति क्षतिग्रस्त हो जाती हैं, जिससे गैस विनिमय की सतह घट जाती हैं। धूम्रपान इसका प्रमुख कारण हैं।

4. व्यावसायिक श्वसन रोग -
कुछ उद्योगों में विशेषकर जहाँ पत्थरर की घिसाई-पिसाई या तोड़ने का कार्य होता हैं, वहाँ इतने धूल के कण निकलते हैं कि शरीर की सुरक्षा प्रणाली उन्हें पूरी तरह निष्प्रभावी नहीं कर पाती, दीर्घकालीन प्रभावन शोथ उत्पन्न कर सकता हैं, जिससे रेशामयता (रेशेमय ऊत्तकों की प्रचुरता) होती हैं, जिसके फलस्वरूप फेंफड़ों को गंभीर नुकसान हो सकता हैं। इन उद्योगों के श्रमिकों को मुखावरण का उपयोग करना चाहिए।







Some important points – 

1. Eupnea – सामान्य संवादन दर
2. Bradypnea – धीमी संवादन दर
3. Tachypnea – तीव्र संवादन दर
4. Dyspnoea – श्वसन में कठिनाई
5. Apnoea – संवादन का अस्थायी तौर पर रुक जाना
6. Asphyxia – O2 की कमी व CO2 की अधिकता से दम घुटना
7. Anoxia – उत्तको में O2 की आपूर्ति बंद हो जाना
8. Hypoxia – उत्तको में O2 की आपूर्ति काम हो जाना
9. Hypocapnoea – रक्त में CO2 की सांद्रता घट जाना
10. Hypercapnoea – रक्त में CO2 की सांद्रता बढ़ जाना
11. Cyanosis – Hbo2 की कमी के कारण त्वचा का नीला पड़ना
12. Blue Baby Syndrome – NO3- प्रदुषण के कारण
13. Casan’s Disease – रक्त में N2 के बुलबुलों के कारण
14. हीरिंग-ब्रुयर प्रतिवर्ती – श्वसन केंद्र पर तंत्रिकाओं के प्रभाव से सम्बंधित है तथा यह stretch receptor के रूप में कार्य करता है |

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