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अंग निर्माण, संरचना विकास एवं बाह्यकंदुक (Organogenesis, Morphogenesis and ectoderm)


1.अंग निर्माण - 

गैस्ट्रुलेशन के दौरान भ्रूण में तीन जननिक स्तरों का निर्माण होता है, जो विभेदित होकर भ्रूण के अंगों का निर्माण करते है। ये जनन-स्तर क्रमशः बहिःस्तर, मध्यस्तर व अन्तःस्तर कहलाते हैं। अधिकतर बहुकोशीय प्राणियों के भ्रूण में ये तीनों स्तरों का निर्माण होता हैं। अतः इन्हें त्रिस्तरीय कहते हैं। अतः भ्रूण के परिवर्धन के दौरान अंगो का निर्माण होता है। इस क्रिया को अंग निर्माण कहते हैं।
इस प्रकार वह प्रक्रिया जिसमें तीन जनन स्तरों से विभिन्न अंग विकसित होते हैं, अंग विकास कहलाते हैं। अंग विकास एक जटिल क्रिया है। अंग विकास का प्रभाव अंग आधार शेष निर्माण माना जाता है।




जनन स्तर तथा उनसे व्युत्पन्न अंग
क्र. स.
बाह्यचर्म
मध्यचर्म
अंत:चर्म
1
त्वचा की एपिडर्मिस तथा इसकी ग्रंथिया
त्वचा की डर्मिस एवं मछलियों के शल्क
यकृत एवं पित वाहिनी
2
दांत का इनेमल
मायोटोमस
अग्न्याशय एवं अग्न्याश्यी नलिका
3
सम्पूर्ण तंत्रिका तंत्र
नोटोकोर्ड
मूत्राशय
4
घ्राण एपिथेलियम
पेरीकार्डियम
पैराथाइरॉइड ग्रंथि
5
आन्तरिक कर्ण
देहगुहा तथा इसके स्तर
थाइरोइड ग्रंथि
6
स्टोमोडियम एवं प्रोक्टोड़ियम
रुधिर वाहिनिया एवं ह्रदय
आहार नाल का मिसेंट्रॉन
7
रेटिना एवं आईरिस
कंकाल तंत्र
फेफड़ा, क्लोम एवं श्वास नली
8
आंख का लेंस
पेशीय तंत्र उत्तक
योनी का भीतरी भाग
9
कन्जक्टिवा
संयोजी उत्तक
थाइमस ग्रंथि
10
अग्र पियूष ग्रंथि
प्लीहा
जठर एवं आंत्रीय ग्रंथिया
11
वर्णक कोशिकाएं
वृक्क एवं वृक्क नलिकाएं
मध्य कर्ण एवं युस्टेसियन नलिका
12
पीनियल ग्रंथि
नेत्र गोलक की पेशिया, नेत्र का स्क्लेरोटिक एवं कोराकोइड स्तर, जनद एवं जनद वहिनिया, आन्तरिक कर्ण का परिलसिका एवं अंतर्लसिका द्रव, एड्रेनल कोर्टेक्स
मध्य एवं पश्च पियूष ग्रंथि
 



2. संरचना विकास - 

शरीर में किसी अंग, भाग या अन्य संरचनाओं के परिवर्धन को संरचना विकास कहते हैं। संरचना विकास गतियों के फलस्वरूप् विभिन्न कोशिकाऐं उन विशिष्ट स्थितियों में स्थानान्तरित हो जाते हैं जहाँ उन्हें विभिन्न ऊतकों एवं अंगों का निर्माण करना होता है। अपनी सही जगह पर पहुँचने के पश्चात् इन कोशिकाओं में गुणन होता है एवं वृद्धि होती है, तो संरचना विकास को प्रथम एवं प्रमुख प्रक्रिया माना जाता है। संरचना विकास निम्नलिखित क्रमिक चरणों में पूर्ण होता है- . कोशिका स्थानान्तरण, . कोशिकाओं के समूहीकरण द्वारा आवरण एवं कोर्डस का निर्माण, . किसी विशेष कोशिका समूह की वृद्धि के फलस्वरूप एक विशिष्ट स्थान पर उत्फुलन अथवा संकुचन, . संलयन एवं विभाजन द्वारा एक आवरण का विभिन्न स्तरों में निर्माण तथा गुहा आदि बनना, . वलन जिसके द्वारा ऊतकों का अन्तर्वलन एवं वहिर्वलन होता है तथा . असमान वृद्धि के कारण मुड़ाव आदि।
उपर्युक्त प्रक्रमों तथा विभेदनात्मक वृद्धि द्वारा भ्रूण एक सामान्य आकार ग्रहण कर अंगों का निर्माण करने लगता है। इस प्रक्रम में गैस्ट्रुलाभवन वास्तव में प्रथम चरण है। गैस्ट्रुलाभवन के समय अध्यारोहण गतियों के फलस्वरूप् भ्रूण बाह्य जननस्तर का निर्माण करता है। जैसे ही भ्रूण का धीरे-धीरे विकास होता है, बाह्य जननस्तर उसी अनुपात में पतली और चपटी होकर फैलती रहती है। अन्ततः कोशिका स्तरों की संख्या धीरे-धीरे कम होती रहती है और तन्त्रिकाभवन के पश्चात् और भी ज्यादा कम हो जाती है। संरचना विकास गतियों के समय उपकला स्तर का वलन इसके एक महत्वपूर्ण चरण को निरूपित करता है। उपकला स्तर ने इस प्रकार के वलन के फलस्वरूप ही आद्यांत्र का निर्माण होता है। इसी प्रकार उपकला में बहिर्वलन के फलस्वरूप नोटोकॉर्ड का निर्माण होता है। इसके अतिरिक्त, पहले कोशिकाएँ एक स्थान पर एकत्र होती है, तत्पश्चात् उनमें स्फुटन द्वारा दो पृथक् स्तरों का निर्माण होता है। जैसे मध्यजन स्तर के फटने के बाह्य भित्तीय स्तर एवं भीतरी आंतरां स्तर का निर्माण। यदि रेखीय वलन एक सिरे पर बन्द होकर उपकला स्तर से पृथक् हो जाता है तो पृथक् होने पर यह खोखली नली का निर्माण करता है। एम्फिऑक्सस में तंत्रिका नाल का निर्माण तथा कर्ण आशय का बनना इसका उदाहरण है। अधिकतर ग्रन्थियों का निर्माण उपकला के अन्तर्वलन के फलस्वरूप ही होता है। नलिकाओं एवं आशयों का निर्माण प्रारम्भ में एक ठोस मोटी उपकला द्वारा ही होता है और बाद में इनमें अवकाशिका का निर्माण होता है। उपकला स्तर के टूटने पर एक अन्य महत्वपूर्ण संरचना विकास प्रक्रम होता है और इसमें अंग आद्यावशेष का निर्माण होता है।


उपकला-मध्योतक अन्योन्य क्रिया - 

फेंफड़ों, वृक्क अथवा स्रावी ग्रन्थियों के प्रारम्भिक परिवर्धन के समय उपकला कोशिका गुणन एवं वृद्धि के कारण शाखित हो जाती है, जबकि मध्योतक इन शाखाओं के चारों ओर संघनित हो जाता है, दोनों उतकों का तुल्यकाली परिवर्धन और पारस्परिक संबंध इनके एक ही पारस्परिक नियंत्रण को निरूपित करता है। यदि इन दोनों ऊतकों का पात्रे संवर्धन किया जाये तो इनका विभेदन नहीं होता परन्तु इनको साथ रखने पर विभेदन प्रारम्भ हो जाता है। कुछ उपकलाओं को अपने विशेष परिवर्धन के लिये एक विशिष्ट समजात मध्योतक की आवश्यकता होती है, जैसे- श्लेष्मिक उपकला एक तरफ मध्योतक के लिए अनावरित रहती है एवं दूसरी ओर फेफड़ों की मध्योतक के लिए। परन्तु दोनों तरफ की मध्योतक एक दूसरे से भिन्न होती है।


बाह्यकोशिकीय आधात्री - 

विभिन्न प्रकार के बाह्य कोशिकीय पदार्थ संरचना विकास के विभेदन के लिए कार्य करते हैं। इस सन्दर्भ में कॉलेजन संश्लेषण का आनुवंशिक नियंत्रण एक मध्य चरण है। उदाहरणार्थ- विभिन्न प्रकार के पिच्छ तथा रेटिना का विभेदन। वास्तविकता में बाह्य कोशिकीय आधात्री निरन्तर एक उपकोशिकीय एजेन्सी समाकलित कोशिकीय जनसंख्या के विभेदन प्रारूप् को निरूपित करती है। साथ ही प्रत्येक कोशिका अंग निर्माण के प्रारूप् में स्वयं भी योगदान देती है।
अतः सम्पूर्ण परिवर्धन में यह विदित है कि कोशिकाओं की पारस्परिक क्रिया से कोशिकीय एवं बहुकोशिकीय संरचना विकास होता है। विभिन्न प्रयोगों द्वारा यह भी ज्ञात हुआ है कि प्रत्येक कोशिका का लक्षण एवं निरीक्षण एजेन्सी का कार्य भिन्न होता है। इन विभिन्न दृष्टिकोण से हम निम्नलिखित परिणाम पर पहुँचते हैं-
àकोशिकाएँ एवं ऊतक अपने लक्ष्यों एंव सामूहिक विभेदन पर आधारित भ्रूण में एक विशेष स्थान ग्रहण करती है।
àकोशिकाओं एवं ऊतक में विभेदन एक संगठित तंत्र में उनकी स्थिति पर निर्भर करता है।


3. बाह्य कंदुक - 

यदि किसी कारणवश कोरक खण्ड भीतर की ओर स्थानान्तरित न हो तो मीसोडर्म तथा एन्डोडर्म द्वारा निर्मित होने वाली रचनाओं का निर्माण हो जाता है। परन्तु एक्टोडर्म से तंत्रिका तंत्र का निर्माण नहीं हो पाता। ऐसे अपसामान्य गेस्ट्रुला को बाह्य कंदुक कहते हैं। मेंढक तथा अन्य एम्फीबिया में बाह्य कंदुक का निर्माण अण्डावरणों को हटा देने से होता है।

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