1.भ्रौणिकी - जीव
विज्ञान की वह शाखा जिसमें भ्रूण का अध्ययन किया जाता है। बेलिन्सकाई के अनुसार
भ्रौणिकी विज्ञान की वह शाखा हैं, जिसमें व्यक्तिवृतीय परिवर्धन
अर्थात् निषेचित अण्ड से पूर्ण जंतु बनने की अवस्थाओं का अध्ययन किया जाता हैं।
2. परिवर्धन जैविकी -
प्रसव पूर्व एवं प्रसवोत्तर दोनों कालों में होने वाले सम्पूर्ण परिवर्तनों का
अध्ययन परिवर्धन-जैविकी कहलाता है। यह भ्रौणिकी का विस्तृत रूप हैं। बेरिल के
अनुसार परिवर्धनात्मक जीव विज्ञान में कोशिकीय विभेदीकरण एवं व्यक्ति वृत्तीय को
सम्मिलित किया जाता हैं।
3. बहुभ्रूणता -
बहुभ्रूणता वह प्रक्रिया हैं जिसमें परिवर्धन के प्रारम्भ में ही कोरक खण्ड अलग हो
जाते हैं एवं स्वतंत्र प्राणी के रूप में विकसित होते हैं जैसे - जुडवाँ में होता
हैं।
4. मेटाजेनेसिस -
ओबीलिया के जीवन चक्र में स्थानबद्ध हाईड्राइड एवं मुक्त प्लावी मेड्यूसाइड अवस्था
जो कि दोनों ही द्विगुणित होती हैं, के बीच नियमित
स्थानांतरण होता हैं। अतः इसे पीढी स्थानांतरण के स्थान पर मेटाजेनेसिस कहते हैं।
5. अलैंगिक जनन - जब
कोई प्राणी युग्मकों एवं विशेष जनन अंगों के बिना अपने स्वयं के समान संतति
उत्पन्न करता है तो इसे अलैंगिक जनन कहते हैं।
6. मुकुलन - यह
अलैंगिक जनन की विधि हैं। मुकुलन में जनन द्वारा मुकुल नामक बहुकोशिकीय जनन-इकाई
का निर्माण किया जाता हैं, जिसका पृथक्करण परिवर्धन से पूर्व
अथवा बाद में होता है अथवा पृथक्करण होता ही नहीं हैं। मुकुलन में जनक का अस्तित्व
समाप्त नहीं होता हैं।
7. विखण्डन - विखण्डन
में जनक का शरीर स्वतः अथवा बाह्य बलों के कारण अनेक खण्डों में विभक्त हो जाता
हैं तथा प्रत्येक खण्ड जनन-इकाई के रूप में कार्य कर नये प्राणी में परिवर्धित हो
जाता हैं। जनक का अस्तित्व समाप्त हो जाता हैं। उदाहरण- हाइड्रा एवं प्लेनेरिया।
8. परिवर्धन जैविकी
का विस्तार - परिवर्धन जैविकी के अध्ययन के आनुवंशिकी, कोशिका
विज्ञान, कार्यिकी विकास, चिकित्सा
विज्ञान आदि को समझने में एवं इन क्षेत्रों में प्रगति के लिए सहायता मिली हैं। यह
अध्ययन हानिकारक जीवों के नियंत्रण तथा लाभदायक प्राणियों की नस्लों के सुधार में
भी सहायक हुआ हैं।
9. व्यक्तिवृत्तीय
परिवर्धन - युग्मनज से पूर्णतया निर्मित प्राणी तक के परिवर्धन को व्यक्तिवृत्तीय
परिवर्धन या व्यक्तिवृत्त कहते हैं। यह दो प्रकार का होता हैं -
भ्रूणोद्भव - युग्मनज से नये
प्राणी के परिवर्धन को भ्रणोद्भव कहते हैं।
कोरकोद्भव - किसी अलैंगिक
जनन संरचना (मुकुल, कायिक खण्ड आदि) से नये प्राणी के
परिवर्धन को कोरकोद्भव कहते हैं।
10. जाति आवर्तन नियम
- इसे पुनरावर्तन सिद्धांत भी कहते हैं। मूलर तथा हीकल ने यह सिद्धांत दिया कि
परिवर्धन प्रक्रम जाति के विकास की पुनरावृति होती हैं।
जनन द्रव्य सिद्धांत -
वीजमेन केेेे जनन-द्रव्य सिद्धांत के अनुसार जनन कोशिकाओं का सांतत्य बना रहता
हैं। कायिक कोशिकाऐं मर जाती है।
मोजेइक सिद्धांत - रूक्स ने
बताया कि परिवर्धन में कोशिकाओं का विभेदन मुख्य घटना होती हैं। इस सिद्धांत के अनुसार, प्राणी की विभिन्न
रचनाओं के निर्माण के लिए ब्लास्टुला में क्षेत्र सीमित हो जाते हैं।
नियमनकारी सिद्धांत - ड्रीश
के नियमनकारी सिद्धांत के अनुसार प्रारंभिक भ्रूण की प्रत्येक कोशिका में पूर्ण
भ्रूण के निर्माण की सामर्थ्य होती हैं, परन्तु उनका भविष्य
उनकी स्थिति पर निर्भर करता हैं।
प्रवणता सिद्धांत - बोवेरी
तथा चाइल्ड ने यह सिद्धांत प्रस्तुत किया। इस सिद्धांत के अनुसार सक्रिय एवं
अल्पक्रिय ध्रुवों के बीच उपस्थित प्रवणताएँ संरचना विकास को नियंत्रित करती हैं।
स्पीमेन का संगठन सिद्धांत -
स्पीमेन ने प्रेरण को भ्रूणीय परिवर्धन की मौलिक क्रियाविधि माना जिसके द्वारा एक
भ्रूणीय ऊतक अन्य ऊतक को किसी विशिष्ट संरचना के निर्माण के लिए प्रेरित करता हैं।
इसे संगठन सिद्धांत कहते हैं।
11. बेयर का नियम -
बेयर को आधुनिक भ्रौणिकी का जनक माना जाता हैं। कार्ल अर्न्स्टवान बेयर ने यह नियम
दिया कि प्राणियों के बड़े समूह के सामान्य लक्षण भ्रूण में अपेक्षाकृत पहले प्रकट
होते हैं तथा प्राणी के विशिष्ट लक्षणों का परिवर्धन बाद में होता हैं। इसे बेयर
का नियम कहते हैं।
12. एस्ट्रस चक्र (मद
चक्र) तथा रज चक्र - प्राइमेट्स को छोडकर सभी स्तनधारी प्राणियों में यह चक्र पाया
जाता है। सम्पूर्ण जननकाल में अण्डाशय गर्भाशय एवं व्यवहार में चक्रीय परिवर्तन
होते रहते हैं। इस चक्रीय परिवर्तनों को मद-चक्र कहते हैं। यह चक्र गाय, बिल्ली आदि में पाया जाता है।
रज चक्र मनुष्य की मादा में पाया जाता है। इसे मासिक धर्म या ऋतु स्राव भी
कहते है। प्राइमेट्स में लैंगिक चक्र रज चक्र के रूप् में निरूपित होती है। जो
नियमित अंतराल में रक्त, ऊतक, म्यूकस,
क्षतिग्रस्त कोशिकाएँ आदि गर्भाशय से योनि द्वारा बाहर निकाल दी
जाती है। यह क्रिया नियमित 28 दिन के अंतराल में होती है।
13. युग्मक जनन -
जननिक कोशिकाओं के नर एवं मादा युग्मकों में परिवर्तन को युग्मक जनन कहते हैं।
युग्मक जनन दो प्रकार के होते हैं। वृषण में शुक्राणुओं के निर्माण की प्रक्रिया
को शुक्रजनन एवं अण्डाशय में अण्डाणु के निर्माण को अण्डजनन कहते हैं।
14. जिन अण्डों में
योक की मात्रा नगण्य होती हैं, उन्हें अपीतकी अण्डे कहते है।
उदाहरण - यूथीरिया स्तनधारी।
15. शुक्राणु
कायांतरण - यह एक जटिल प्रक्रिया है। एक अचल, गोल एवं अगुणित
कोशिका पूर्व शुक्राणु से एक धागेनुमा शुक्राणु बनाने की क्रिया को शुक्र कायांतरण
कहते हैं।
16. कायान्तरण -
लार्वा अवस्था से वयस्क अवस्था में परिवर्तित होने की प्रक्रिया कायान्तरण कहलाती
हैं। जैसे- उभयचर, कीट आदि। कायान्तरण दो प्रकार का होता
हैं- प्रगामी कायान्तरण तथा प्रतिगामी कायान्तरण।
17. आदि रेखा -
अतिपीतकी अंडों में संरचना-विकास गतियों के लिए एक विशिष्ट संरचना बनती हैं जिसे
आदि रेखा कहते हैं। अण्डे देने के 6 से 7 घण्टे पश्चात् भ्रूण में आदि रेखा का निर्माण शुरू हो जाता हैं।
18. जरायुजता - जिन
प्राणियों में युग्मनज का परिवर्धन मादा जनक के शरीर में होता हैं तथा भ्रूण एवं
मादा शरीर के बीच संरचनात्मक एवं क्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं, उन्हें जरायुज प्राणी कहा जाता हैं ऐसे लैंगिक जनन को जरायुजता कहते हैं।
उदा. - यूथीरिया।
19. विदलन - परिवर्धन
के प्रारंभिक काल में युग्मनज का बार-बार समसूत्री विभाजन होता हैं, इस क्रिया को विदलन या खण्डीभवन या कोशिकाभवन कहते हैं। इन विभाजनों को
विदलन विभाजन तथा निर्मित पुत्री कोशिकाओं को कोरकखण्ड कहते हैं।
20. नियति मान चित्र
- किसी कोरक में या प्रारंभिक भ्रूणीय अवस्था में सम्भावी क्षेत्रों को सूचिबद्ध
कर चित्रीय निरूपण करना ही उसका नियति मानचित्र या सम्भावी रेखाचित्र कहलाता हैं।
दूसरे शब्दों में कोरक के विभिन्न भागों से बनने वाले क्षेत्रों को सूचीबद्ध कर
इसके चित्रीय निरूपण को सम्भावी रेखाचित्र कहते हैं।
21. अंशभंजी या
अपूर्ण विदलन - अतिपीतकी अण्डाणुओं में योक द्वारा सक्रिय कोशिका द्रव्य को
विस्थापित कर इसे अत्यन्त छोटे क्षेत्र में सीमित कर दिया जाता हैं। विदलन में यदि
विभाजन सक्रिय कोशिका द्रव्य के क्षेत्र में ही सीमित रहे तथा योक अविभाजित रहे तो
ऐसे विदलन को अंशभंजी विदलन कहते है। अंशभंजी विदलन दो प्रकार का होता हैं-
बिम्बाभ विदलन तथा पृष्ठीय या सतही विदलन।
22. अध्यारोहण -
बाह्य चर्म निर्मित करने वाली कोशिकाओं का विस्तार अध्यारोहण कहलाता हैं। यह
विस्तार इन कोशिकाओं की चपटा होने की प्रवृत्ति एवं इनके निरंतर विभाजनों द्वारा
होता हैं। ये गतियाँ बाह्यजन स्तर निर्मित करने वाले कोरक खण्डों में पाई जाती
हैं।
23. भ्रूणीय प्रेरण -
द्वितीयक अंगों का परिवर्धन आरोपित पदार्थ के किसी विशिष्ट प्रभाव के कारण ही हुआ
था। इस प्रकार का प्रभाव जिसके फलस्वरूप भ्रूण में किन्हीं अंगों का परिवर्धन होता
है उसे भ्रूणीय प्रेरण कहते हैं तथा वह भाग जो इस प्रेरण का स्रोत होता हैं उसे
प्रेरक की संज्ञा दी जाती हैं।
24. प्राथमिक संगठक -
स्पीमेन ने पृष्ठ ओष्ठ को प्राथमिक संगठक नाम दिया। अतः जिन कोशिकाओं में धूसर
अर्धेन्दु नहीं होता है वे कोरक खण्ड बोचस्टक का निर्माण करते हें। इस धूसर
अर्धेन्दु युक्त पृष्ठ ओष्ठ को स्पीमेन के सम्मान में स्पीमेन का प्राथमिक संगठक
कहते हैं।
25. सामर्थ्य -
सामर्थ्य एक प्रकार की समय पर निर्भर परिघटना हैं। किसी विशिष्ट उद्दीपन के प्रति
प्रभावी ऊतक द्वारा होने वाली अनुक्रिया, सामर्थ्य कहलाती
हैं।
26. बहिर्जात प्रेरण
- सम्पर्क द्वारा भ्रूणीय कोशिकाओं में नए प्रकार के विभेदन प्रतिरूप सम्पन्न होते
हैं, जिसे बहिर्जात प्रेरण कहते हैं। यह प्रेरण दो प्रकार का
होता हैं -
अ. होमोटिपीक प्रेरण - जब
प्रेरण के द्वारा प्रेरक अपने ही समान ऊतकों के निर्माण को प्रेरित करता हैं।
ब. हेटरोटिपीक प्रेरण - जब
प्रेरण के द्वारा प्रेरक अपने से भिन्न प्रकार के ऊतकों के निर्माण को प्रेरित
करता हैं।
27. अंतर्जात प्रेरण
- कुछ भ्रूणीय कोशिकाएँ अंतर्जात रूप से उत्पन्न प्रेरक के कारण इनमें स्वयं
विभेदन की क्रिया प्रारम्भ हो जाती हैं। यह प्रेरण असमान विभाजन, छोटी कोशिका, योक युक्त कोशिका, घातक कोशिकीय लयन द्वारा प्रभावित होता हैं।
28. टेडपोल लार्वा का
कायांतरण - मेंढक तथा अन्य उभयचारियों के टैडपोल लार्वा का कायांतरण थाइरॉक्सीन
नामक हार्मोन के नियंत्रण में होता हैं। यह हॉर्मोन थाइरॉइड नामक अंतःस्त्रावी
ग्रन्थि द्वारा स्रावित होता हैं। ऐसे प्रायोगिक प्रमाण उपलब्ध हैं कि यदि टैडपोल
की थाइरॉइड ग्रन्थि को शल्य क्रिया द्वारा हटा दिया जाए तो इसका कायांतरण रूक जाता
हैं।
29. गैस्ट्रुलाभवन -
गेस्ट्रुला के निर्माण के प्रक्रम को गेस्ट्रुलाभवन कहते हैं। यह परिवर्धन की वह
प्रावस्था होती हैं, जिसमें अविभेदित कोरकचर्म से एक्टोडर्म
या मीसोडर्म तथा एण्डोडर्म नामक तीन प्राथमिक जनन स्तरों का पृथक्करण होता है तथा
ये जनन स्तर अपनी विशिष्ट स्थिति ग्रहण कर लेते हैं।
30. गैस्ट्रुला -
गैस्ट्रुलाभवन के अंत में निर्मित भ्रूण को गैस्ट्रुला कहतें हैं। इसमें तीन
कोशिका स्तर पाए जाते हैं - बाह्यचर्म, मध्य जनन स्तर,
अंतश्चर्म। (क्रमशः बाहर से अंदर की ओर)
31. बिम्बकोरक - इस
कोरक का निर्माण बिम्बना विदलन द्वारा होता हैं। गोलार्द्धपीतकी की अण्डाणुओं में
बिम्बान्त विदलन के फलस्वरूप योक पर सक्रिय ध्रुव के क्षेत्र में बिम्ब का निर्माण
हो जाता है। यह बिम्ब कोरक गुहा द्वारा योक से अलग हो जाता हैं। उदाहरण - कुछ
मछलियाँ, सरीसृप, पक्षी एवं अण्डप्रजक।
32. कवच के आधार पर
अण्डे - कवच की उपस्थिति/अनुपस्थिति के आधार पर अण्डे दो प्रकार के होते हैं-
अ. क्लीडोइक अण्डे - वे
अण्डे जिन पर कवच पाए जाते हैं, क्लीडोइक अण्डे कहलाते हैं।
उदाहरण- रेप्टाइल्स, कीट एवं पक्षियों के अण्डें।
ब. नॉन क्लीडोइक अण्डे - इस
प्रकार के अण्डों पर कवच नहीं होता है। ऐसे अण्डे नॉन क्लीडोइक अण्डे कहलाते हैं।
उदाहरण- एम्फीबिया एवं यूथिरियन स्तनधारी के अण्डे।
33. विकास के दौरान
मोरूला या तूतक भ्रूण शहतूत की आकृति का होता है। गेस्ट्रुला की गुहा को आद्यांत्र
या आरकेन्ट्रॉन कहते हैं।
34. एक्रोसोम में पाए
जाने वाले एंजाइम - एसिड हाइड्रोलेज, एसिड फॉस्फेटेज,
हाइल्यूरोलिडेज, एक्रोसीन व एक्रोसोमिन आदि।
35. एरिया पेल्यूसिडा
- सरीसृप, पक्षी तथा स्तनधारी वर्ग के प्राणियों में
ब्लास्टोडर्म एक डिस्क के रूप में पाई जाती हैं। इस डिस्क का मध्य क्षेत्र
पारदर्शी होता हैं। जिसे एरिया पेल्यूसिडा कहते हैं।
36. प्लैंसेंटा -
मातृक तथा भ्रूणीय ऊतकों के मध्य पाये जाने वाले संयोजन को प्लेसेंटा कहते हैं।
प्लेसेन्टा के निर्माण को प्लेसेन्टेशन कहते हैं। प्लेसेंटा भ्रूण में पोषण,
श्वसन, उत्सर्जन व प्रतिरक्षा प्रदान करने का
कार्य करती हैं।
37. टेडपोल के
कायांतरण के व्यावहारिक परिवर्तन - टेडपोल शाकाहारी होता हैं जबकि वयस्क मेंढक
माँसाहारी जीवन व्यतीत करने लगता हैं। टेडपोल जलीय होता हैं। कायान्तरण के अन्त
में निर्मित मेंढक थोड़े-थोड़े समय के लिए भूमि पर आने लगता हैं अर्थात् जलीय स्वभाव
का परिवर्तन उभयचारी स्वभाव में हो जाता हैं।
38. निषेचन - यह एक
जटिल प्रक्रिया हैं। इस प्रक्रिया में नरयुग्मक (शुक्राणु) तथा मादा युग्मक
(अण्डाणु) का संयोजन होता हैं।
39. एरिया ओपाका -
पक्षियों के भ्रूण में ब्लास्टोडिस्क का परिधीय भाग है जो हल्के रंग के केन्द्रीय
भाग एरिया पेल्यूसिडा के बाहर स्थित होता हैं और गहरे रंग का दिखाई देता हैं। यह
पीतक कोशिकाओं का बना होता हैं और इसकी कोशिकायें पीतक से जुड़ी होती हैं।
40. एम्नियॉटिक तरल -
एम्नियॉन तथा भ्रूण के बीच की गुहा को एम्नियॉटिक गुहा कहते हैं। यह गुहा पूर्णतः
बाह्यचर्म से स्तरित होती हैं तथा इसमें भरा तरल एम्नियॉटिक तरल कहलाता हैं।
41. कोरियॉन के कार्य
- कोरियॉन की गुहा ऐलेण्टॉइस कला को बढ़ने के लिए स्थान प्रदान करती हैं। कोरियॉन
कला की सीरो-एम्नियॉटिक गुहा में तरल भ्रूण के अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता हैं।
42. यदि तालाब के जल
में आयोडीन मिला दिया जाता है, तो मेंढक शिशु का कायांतरण
शीघ्र गति से हो जाता हैं, क्योंकि आयोडीन थायरॉक्सिन
हॉर्मोन का मुख्य अवयव हैं। व थायरॉक्सिन हॉर्मोन कायांतरण को नियंत्रित करता हैं।
43. टेडपोल लार्वा का
मुख्य उत्सर्जी उत्पाद अमोनिया हैं अतः यह एमीनोटेलीक होता हैं।
44. एपिब्लास्ट -
मछलियों, पक्षियों एवं सरीसृपों के भ्रूणों में गैस्ट्रुला
अवस्था में सबसे बाहरी कोशिकीय स्तर को एपिब्लास्ट कहते हैं।
45. पीतक कोष का
प्रमुख कार्य पीतक का अवशोषण होता हैं।
46. पुनरूद्भवन
ब्लास्टेमा - घाव के खुले सिरे पर अभिन्नित मीसेनकाइम कोशिकाओं के समूह को
पुनरूद्भवन ब्लास्टेमा कहते हैं। इसकी कोशिकाओं की वृद्धि एवं भिन्नन से नष्ट हुए
भाग का पुनःनिर्माण होता हैं।
47. न्यूरल क्रेस्ट -
न्यूरल क्रेस्ट उन कोशिकाओं का समूह हैं जो न्यूरल फोल्ड के अंदर की ओर विकसित
होती हैं ये भ्रूण की पूरी लंबाई में न्यूरल नाल के साथ-साथ होता हैं। इनसे
मीसेनकाइम कोशिकायें बनती हैं जो क्रेनियल और सिम्पेथेटिक गैंग्लिया बनाती हैं।
48. मॉर्फेलेक्जिस -
पुनरूद्भवन प्रक्रिया के अंतर्गत यदि किसी जंतु के अवशेषी भाग की पुनर्व्यवस्था
होती है तब उस विधि को मॉर्फेलेक्सिस कहते हैं। उदाहरण- आर्कियोसाइट्स से नये
स्पंजों का निर्माण।
49. पूरकक्षति
पुनरूद्भवन - इस प्रकार के पुनरूद्भवन से क्षत भाग बदलता हैं या शरीर के नष्ट हुए
भाग की मरम्मत होती हैं। सेलामेन्डर के बाद का पुनरूद्भवन, छिपकली
में पुच्छ का पुनरूद्भवन, घावों का भरना आदि इस प्रकार के
पुनरूद्भवन के उदाहरण हैं।
50. मछलियों तथा
पक्षियों में पुनरूद्भवन - मछलियों में पुनरूद्भवन की क्षमता सिर्फ फिन्स में पाई
जाती हैं। पक्षियों में पुनरूद्भवन की क्षमता बहुत कम पाई जाती हैं। इनमें सिर्फ
चोंच का क्षत भाग ही पुनरूद्भवन की क्षमता रखता हैं।
51. पुनरूद्भवन को
प्रभावित करने वाले कारक - तापक्रम, भोजन, ऑक्सीजन, विद्युतधारा, तंत्रिका
नियंत्रण व एक्स किरणें।
52. एजिंग (जीर्णता)
- यदि किसी जीव की कोई दुर्घटना ना हो या माँसभक्षी द्वारा ना खा लिया गया हो या
भयंकर बीमारी से ग्रस्त ना हो, फिर भी वृद्धावस्था का अंतिम
परिणाम मृत्यु होती हैं। किसी सजीव के संगठक अंगो के प्रोग्रेसिव परिवर्तनों का
कुल योग ही जीर्णता कहलाता हैं।
53. जीरन्टोलॉजी -
परिवर्धन संबंधी वह क्षेत्र जो एजिंग की प्रक्रियाओं के अध्ययन से सबंधित होता हैं,
उसे जीरन्टोलॉजी कहते हैं।
54. विरूपणता का
महत्व - इसके अध्ययन द्वारा संरचना विकास के छुपे रहस्यों को ज्ञात किया जाता हैं।
55. मोरुलाभवन -
भ्रूणोद्भव के समय समपीतकी अण्डों में विदलन के फलस्वरूप् 16
या अधिक कोशिकाओं की अवस्था में एक ठोस पिण्ड बनता है। शहतूत के फल के ऊपरी
समरूपता होने के कारण इसे शहतूत अवस्था, तूतक या मोरूला कहते
हैं। इसके निर्माण को मोरूलाभवन कहते हैं।
56. हर्टविग का नियम
- हर्टविग के अनुसार, केन्द्रक एवं समसूत्री तर्कु जीवद्रव्य
के केन्द्र में स्थित होता हैं। समसूत्री तर्कु का अक्ष उस जीवद्रव्य के अधिकतम
लम्बे अक्ष में स्थित होता हैं, जिसमें यह निर्मित होता हैं।
57. विभेदन - एकसी
कोशिकाओं का संरचनात्मक व क्रियात्मक दृष्टि से भिन्न हो जाने को विभेदन कहते हैं।
भ्रूणीय परिवर्धन में विभेदन एक महत्वपूर्ण घटना हैं।
58. भ्रूणीय परिवर्धन
में रासायनिक विभेदन का महत्व - रासायनिक विभेदन का अर्थ कोशिकाओं में ऐसे विशिष्ट
कार्बनिक पदार्थों के निर्माण से हैं, जिनके द्वारा संबंधित
कोशिकाएँ अद्वितीय एवं अन्य कोशिकाओं से भिन्न हो जाती हैं। कोशिका में विभिन्न
कार्बनिक पदार्थों का संश्लेषण एंजाइम की उपस्थिति में ही संभव है तथा एंजाइम
रासायनिक दृष्टि से प्रोटीन्स होते हैं, इसलिए कोशिका
अद्वितीय प्रोटीन प्रतिरूपों का निर्माण ही रासायनिक विभेदन होता हैं।
59. कार्यिकीय विभेदन
- सभी प्रकार की कोशिकाओं में एकसी क्रियाऐं होती हैं जैसे उपापचय। विभिन्न
कोशिकाओं द्वारा भिन्न-भिन्न कार्य किए जाते हैं। उदाहरणार्थ- पेशीकोशिका का
संकुचन, तंत्रिका कोशिका द्वारा आवेगों का संचरण आदि। अतः वह
प्रक्रम जिसके द्वारा विभिन्न कोशिकाओं की क्रियाओं में विभिन्नताएँ प्रकट होती हैं,
उसे कार्यिकीय विभेदन कहते हैं।
60. पुनरूद्भवन -
पुनरूद्भवन वह क्रिया होती हैं जिसके द्वारा हानिग्रस्त विलुप्त दैहिक भागों का
पुनःस्थापन किया जाता हैं। अतः खोए हुए उपांगों को पुनः प्राप्त करने की क्रिया को
पुनरूद्भवन कहते हैं। वह सम्पूर्ण प्रक्रिया जिसमें जंतु अपने शरीर के क्षत भागों
का पुननिर्माण करता हैं उसे पुनरूद्भवन कहते हैं।
61. एपिमौर्फोसिस -
पुनरूद्भवन में ब्लास्टेमा के अंदर नयी कोशिका निर्माण, वृद्धि
एवं भिन्नता की क्रिया को एपिमौर्फोसिस कहते हैं। इसके फलस्वरूप् नष्ट हुआ भाग
पुनः बन जाता हैं।
62. सैक का नियम -
सैक ने इसे 1877 में प्रतिपादित किया। इसके अनुसार कोशिकाओं
में समान पुत्री कोशिकाओं में विभाजित होने की प्रवृति होती हैं। प्रत्येक विभाजन
तल में पूर्व विभाजन तल को समकोणिक रूप में द्विभाजित करने की प्रवृति पाई जाती
है।
पिल्युगर का नियम - पिल्युगर
ने बताया कि समसूत्री तर्कु न्यूनतम प्रतिरोध की दिशा में दीर्घीत होते हैं।
63. विदलन का महत्व -
विदलन के द्वारा युग्मनज के भ्रूणोद्भवन पदार्थ अनेक कोशिकाओं में विभाजित हो जाता
हैं। यह कोशिका विभेदन एवं संरचना विकास की तैयारी होती हैं। विदलन में भ्रूणीय
शरीर के भावी भागों में निर्माण हेतु मुख्य पूर्वनिर्धारी क्षेत्रों का पृथक्करण
होता हैं।
64. बेल्फोर का
सिद्धांत - विदलन की दर उपस्थित योक के परिमाण की व्युत्क्रमानुपाती होती हैं।
65. कोरकभवन -
कोरकभवन का काफी महत्व होता हैं। कोरकभवन के फलस्वरूप् कोशिकीय विभेदन हेतु समस्त
तैयारियाँ पूर्ण हो जाती हैं। ताकि परिवर्धन के गैस्ट्रुलाभवन में कोशिका-समूहों
में संरचनात्मक परिवर्तन हो सके। कोरकभवन में निर्मित कोरकगुहा द्वारा ही
गैस्ट्रुलाभवन में कोशिकाओं के अभिगमन के मुख्य निर्देशित अंश निर्माण क्षेत्रों की
पुनर्व्यवस्था सम्भव हो जाती हैं।
66. वल्कुटी क्रियाऐं
- निषेचन शंकु के निर्माण के तुरन्त पश्चात् अण्डाणु के परिधीय कोशिकाद्रव्य जिसे
वल्कुट कहते हैं। इसमें कईं भौतिक एवं रासायनिक क्रियाएँ होती हैं। इन क्रियाओं को
वल्कुटी क्रियाऐं कहते हैं। इन क्रियाओं में सबसे प्रमुख निषेचन कला का निर्माण
हैं। यह प्लाज्मा झिल्ली के बाहर बनती हैं। निषेचन कला के मध्य के अवकाश का
परिपीतक अवकाश कहते हैं।
67. पीतकजनन - पीतक
के संश्लेषण तथा संग्रहण की प्रक्रियाओं को पीतकजनन कहते हैं। पीतक का संश्लेषण
कशेरूकी जंतुओं में प्राथमिक अण्डक को घेरने वाली पुटक कोशिकाओं में होता हैं तथा
यह पिनोसाइटोसिस द्वारा अण्डक में पहुँचाया जाता हैं।
68. अतिपीतकी अण्ड -
जिन जंतुओं के अण्डों में अत्यधिक मात्रा में पीतक होता हैं उन्हें अतिपीतकी अण्ड
कहा जाता हैं।
69. अनिषेक जनन -
निषेचन के बिना अण्डाणु के परिवर्धन को अनिषेक जनन कहते हैं। ऐसे परिवर्धन के
फलस्वरूप् निर्मित संतान को पार्थेनोट कहते हैं।
70. अण्डाणु तथा
अण्डे में अंतर - अण्डाणु एवं अण्डावरणों को संयुक्त रूप से अण्डा कहते हैं जबकि
अनावरित मादा युग्मक को अण्डाणु कहते हैं। अर्थात् अण्डा आवरित होता हैं जबकि
अण्डाणु अनावरित होता हैं।
71. पीतक की मात्रा
के आधार पर अण्डों को तीन प्रकारों में विभाजित किया गया हैं -
अ. एलेसीथल या ओलिगोलेसिथल -
उदा.-मानव का अण्डा।
ब. मीजोलेसिथल - उदा.-मेंढक
का अण्डा।
स. मैक्रो या मेगालेसिथल -
उदा.-मुर्गी का अण्डा।
72. अण्डों के
वर्गीकरण के आधार - अ. योक के परिमाण के आधार पर।
ब. योक के वितरण के आधार पर।
स. कवक की उपस्थिति अथवा
अनुपस्थिति के आधार पर।
द. परिवर्धन के प्रकार के
आधार पर।
73. जननिक आशय -
प्राथमिक अण्डक के विवर्धित केन्द्रक को जननिक आशय कहते हैं। क्योंकि अण्डक की
वृद्धि अवस्था में इस केन्द्रक के कुछ गुणसूत्र बड़े होकर लैम्पब्रुश गुणसूत्र
बनाते हैं और प्रोटीन व योक संश्लेषण के लिए आवश्यक सूचना भेजते हैं।
74. जरायुजता - जिन
प्राणियों में युग्मनज का परिवर्धन मादा के शरीर में होता हैं तथा मादा एवं भ्रूण
के मध्य संरचनात्मक एवं क्रियात्मक सम्बन्ध स्थापित हो जाता हैं, उन्हें जरायु प्राणी कहा जाता हैं। ऐसे लैंगिक जनन को जरायुजता कहते हैं।
जरायुज प्राणियों में भ्रूण को जनक शरीर में रहने से सुरक्षा एवं पोषण प्राप्त
होता हैं।
75. कृत्रिम अनिषेक
जनन - कुछ प्राणियों के परिपक्व अण्डों को अनेकों भौतिक तथा रासायनिक उद्दीपनों
द्वारा प्रेरित कर उन्हें अनिषेक जनन द्वारा परिवर्धन करने के लिए बाध्य किया जा
सकता हैं। इसे ही कृत्रिम अनिषेक जनन कहते हैं।
76. अण्डजनन -
अण्डाशय की जनन उपकला की कोशिकाएँ प्रारम्भिक जननिक कोशिकाऐं कहलाती हैं जो
अण्डजनन द्वारा अण्डाणु का निर्माण करती हैं। यह क्रिया अण्डाशय में होती हैं।
77. आंतरिक निषेचन -
ऐसा निषेचन जिसमें मैथुन क्रिया द्वारा नर अपने शुक्राणुओं को मादा के जननांग में
स्खलित करता है अर्थात् मादा के शरीर के जननांग में होने वाले निषेचन को आंतरिक
निषेचन कहते हैं। आंतरिक निषेचन निम्न परिस्थितियों में संपन्न होता हैं- अण्ड
जरायुज तथा जरायुज प्राणियों में आंतरिक निषेचन होता हैं। कठोर आवरण युक्त अण्डे
देने वाले अण्डज प्राणियों में आंतरिक निषेचन होता हैं।
78. समर्थता -
स्तनियों के शुक्राणु में एक्रोसोम तो उपस्थित होता है किन्तु एक्रोसोम तंतु नहीं
बनते हैं। वृषणों अथवा शुक्रवाहिनियों से निकाले गए शुक्राणु परिपक्व अण्डाणु को
निषेचन करने में असमर्थ होता हैं तथा केवल वे शुक्राणु जो मादा की योनि में
पहुँचकर वहाँ मादा प्रजनन मार्ग द्वारा स्रावित विशिष्ट तरल के सम्पर्क में आते
हैं, अण्डाणु कलाओं को भेदने तथा अण्डाणु तक पहुँचने की
क्षमता रखते हैं। स्तनियों के शुक्राणु से उत्पन्न अण्डाणु को निषेचित करने की इस
कार्य क्षमता को समर्थता कहते हैं।
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