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Showing posts from August, 2020

कुपोषण के कारण होने वाले रोग (Diseases due to Malnutrition)

1. प्रोटीन की कमी के कारण होने वाले रोग (Diseases due to Protein deficiency) - मनुष्य को शारीरिक विकास के लिए प्रोटीन की आवश्यकता होती हैं। बच्चों में प्रोटीन की कमी से सर्वाधिक कुपोषण होता हैं। जिससे दो मुख्य रोग होते हैं -   Ⅰ . क्वाशियोरकोर (Kwashiorkor) - यह प्रोटीन की कमी के कारण हाने वाला रोग हैं। इसके मुख्य लक्षण जैसे- भूख कम लगना , शरीर सूज कर फूलना , त्वचा पीली व शुष्क होना और चिड़चिड़ा होना।   Ⅱ . मैरेस्मस (Marasmus) - यह रोग भोजन में प्रोटीन व कैलोरी दोनों की कमी से होता हैं। इसमें शरीर सूखने लगता हैं , रोगी दुबला-पतला , चेहरा दुर्बल तथा आंखें कांतिहीन और अंदर धंसी-सी हो जाती हैं।   2. कार्बोहाइड्रेट की कमी से होने वाले रोग (Diseases due to Carbohydrate deficiency) - स्ंतुलित भोजन में कार्बोहाइड्रेट ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत होता हैं , इस कारण इसकी कमी से कई सारे गंभीर रोग हो जाते हैं।   Ⅰ . हाइपोग्लाईसीमिया (Hypoglycemia) - कार्बोहाइड्रेट की कमी से ग्लूकोज की शरीर में अनुपलब्धता से रक्त शर्करा के स्तर में गिरावट हो जाती हैं। रक्त में ग्लूकोज

कुपोषण (Malnutrition)

अधिकांश भारतीयों के भोजन में चाहे वह गरीब हो या अमीर , वृद्ध हो या युवा , स्त्री हो या पुरूष , गर्भवती माता हो या धात्री , किसी-न-किसी पौष्टिक तत्वों की अधिकता या कमी रहती ही हैं। विशेषकर गरीब किसान , मजदूर तथा निम्न आर्थिक वर्ग के लोगों का भोजन गुणात्मक (Qualitative) तथा परिमाणात्मक (Quantitative) दोनों ही दृष्टि से अपर्याप्त होता हैं।           भारत की अधिकांश गरीब जनता को प्रतिदिन सुबह-शाम भरपेट दाल-रोटी भी नसीब नहीं होती हैं। अतः वे प्रोटीन-कैलोरी कुपोषण से भयंकर रूप से पीड़ित होते हैं। कुछ गरीब परिवार के बालकों को भरपेट अनाज (Cereals) भी नहीं मिलता हैं , परिणामतः उनके शरीर में ऊर्जा उत्पादक भोज्य तत्वों की भी कमी होती हैं तथा वे निर्बल , कमजोर , निशक्त एवं थके-थके दिखाई देते हैं। गर्भवती तथा धात्री माता की दशा भी कम दयनीय नहीं हैं।             विश्व के कई देश कुपोषण के शिकार हैं। कुपोषण तीव्र व दीर्घकालिक रोगों में आमतौर पर पाया जाता हैं। अस्पतालों में भर्ती वयस्क व्यक्तियों में >50% कुपोषण पाया जाता हैं। यह अस्पताल में भर्ती मरीजों की अस्वस्थता एवं मृत्युदर (Morbid

ग्राही (Receptors)

किसी वस्तु से स्पर्श करने पर धनात्मक अनुक्रिया या ऋणात्मक अनुक्रिया को स्पर्शानुचलन (Thigmotaxis) कहते हैं। जन्तुओं में त्वचा ही प्रमुख स्पर्शग्राही (Thigmo receptor or tactile receptor) होती हैं। त्वचा ही प्रमुख रूप से पीड़ा ग्राही (Pain receptors) होती हैं। सभी त्वक ग्राही संरचना में सरल होते हैं। कुछ त्वक ग्राही एक कोशिकीय (Unicellular) और कुछ बहुकोशिकीय (Multicellular) होते हैं। कुछ त्वकग्राही तंत्रिकाओं के अंतिम सिरे भी होते हैं। स्तनधारियों के त्वचा की डर्मिस में कई प्रकार के ग्राही अंग पाए जाते हैं। जिनमें निम्न प्रमुख हैं -   1. स्पर्श ग्राही (Thigmo receptors) - स्पर्शग्राही त्वचा की एपिडर्मिस के ठीक नीचे स्थित होते हैं। ये स्पर्श द्वारा उद्दीपित होते हैं। स्पर्शग्राही का निर्माण तंत्रिका तंतु के अंतिम सिरे करते हैं , जो बहुत-सी शाखाओं में विभाजित होते हैं। कभी-कभी इन स्वतंत्र सिरों को संयोजी ऊत्तक चारों ओर से घेर लेते हैं एवं पुटिका सी संरचना बनाते हैं , वे एपिडर्मिस की स्तर में छोटे-छोटे उभार से बना लेते हैं। इनको ‘माइसनर कॉर्पुसल्स’ (Meissner’s corpuscles) कहते

तंत्रिकीय तंत्र से संबंधित रोग (Disorders of Nervous System)

Disorders of Nervous System 1. न्यूराइटिस (Neuritis) - यह तंत्रिकीय कोशिकाओं में रोगाणुओं द्वारा होने वाला संक्रमण हैं। यह मुख्य रूप से परिधिय तंत्रिका तंत्र में पाया जाता हैं।   2. मेनिन्जाइटिस (Meningitis) - यह मस्तिष्क तथा मेरूरज्जु के सुरक्षात्मक आवरण ( अर्थात् मेनिन्जेस झिल्लियों) में होने वाला संक्रमण हैं , जो मुख्य रूप से जीवाणु या विषाणु द्वारा फैलता हैं।   3. पार्किन्सन्स डिजीज (Parkinson’s Disease) - यह आनुवंशिक कारक अथवा विशिष्ट जीवन शैली के कारण उत्पन्न होने वाला रोग हैं। इस रोग में मस्तिष्क में पृष्ठिय गैंग्लियॉन क्षतिग्रस्त हो जाते हैं , जिसके फलस्वरूप डोपेमिन (Dopamine) के स्त्रवण में कमी होने लगती हैं , इसके कारण रोगी की ऐच्छिक क्रियाओं का नियमन धीमा हो जाता हैं अथवा रूक जाता हैं। रोग के प्रारंभिक लक्षणों में ऐच्छिक गतियों के दौरान उत्पन्न होने वाली झूझन अथवा कंपन्न (Tremor and Shivering) दिखाई देते हैं।  

मानव कर्ण (Human Ear)

कर्ण मनुष्य का संवेदी अंग हैं , जो निम्नलिखित कार्य सम्पन्न करता हैं - - सुनने में सहायता प्रदान करना। - शरीर के संतुलन को बनाए रखने में सहायता प्रदान करना।   कर्ण की आंतरिक संरचना - Human Ear आंतरिक संरचना में कर्ण को तीन भागों में विभक्त किया गया हैं , जो निम्न हैं - 1. बाह्य कर्ण - इस भाग में निम्नलिखित संरचनाऐं मौजूद होती हैं - अ.कर्ण पिन्ना - यह प्रत्यास्थ उपास्थि से निर्मित भाग हैं , जो मनुष्यों में अगतिशील होता हैं , जबकि निम्न कशेरूकियों में यह गतिशील अवस्था में पाया जाता हैं , जहाँ यह ध्वनि तरंगों को ग्रहण करने में सहायता प्रदान करता हैं।   ब. कर्ण कुहर - यह कर्ण पिन्ना में उपस्थित छिद्रनुमा संरचना हैं , जो ध्वनि तरंगों को ग्रहण करने में सहायता प्रदान करती हैं।   स. बाह्य कर्ण नाल - यह नलिकाकार संरचना हैं , जो बाह्य कर्ण को मध्य कर्ण से जोड़ने का कार्य करती हैं , इसके अंदर विशिष्ट प्रकार की ग्रन्थिल संरचना उपस्थित होती हैं , जिसे सेरूमिनस ग्रन्थि कहा जाता हैं , इस ग्रन्थि द्वारा पीले रंग के मोम रूपी पदार्थ का स्त्रवण होता हैं , जिसे सेरूमेन कहा

नेत्र से संबंधित रोग (Disorders of Eye)

Eye Disease 1. निकट दृष्टि दोष (Myopia) - इस रोग में व्यक्ति को निकट की वस्तु तो स्पष्ट दिखाई देती हैं , जबकि दूर की वस्तु अस्पष्ट दिखाई देती हैं। इस रोग में नेत्र लैंस की शक्ति बढ़ जाती हैं अथवा नेत्र गोलक का आकार बढ़ जाता हैं , जिसके फलस्वरूप वस्तु के प्रतिबिम्ब का निर्माण रेटीना परत से पहले होने लगता हैं। इसके निवारण हेतु उचित शक्ति के अवतल लैंस का उपयोग करने की सलाह दी जाती हैं।   2. दूर दृष्टि दोष (Hypermetropia) - इस रोग में व्यक्ति को दूर की वस्तुऐ तो स्पष्ट दिखाई देती हैं , जबकि निकट की वस्तुऐं अस्पष्ट दिखाई देती हैं। यह नेत्र लैंस की शक्ति कम होने अथवा नेत्र गोलक के आकार के कम होने के कारण होता हैं , जिसके फलस्वरूप वस्तु का प्रतिबिम्ब रेटीना परत के बाद में निर्मित होने लगता हैं। इसके निवारण हेतु उचित शक्ति के उत्तल लैंस का प्रयोग करने की सलाह दी जाती हैं।  

मानव नेत्र (Human Eye)

वातावरण के परिवर्तनों की पहचान हम विभिन्न अंगों द्वारा करते हैं। वे अंग जो वातावरण की संवेदनाओं को ग्रहण करने का कार्य करते हैं , संवेदी अंग कहलाते हैं। संवेदी अंगों के द्वारा इन वातावरणीय संवेदनाओं को ग्रहण कर मस्तिष्क के विभिन्न भागों तक भेजा जाता हैं। मनुष्य में ये संवेदी अंग पाँच होते हैं- कान , नाक , जीभ , त्वचा तथा नेत्र।   मानव नेत्र (Human Eye) - मनुष्य की खोपड़ी में एक जोड़ी नेत्र , नेत्र गर्तिका में स्थित होते हैं , इस गर्तिका को नेत्र कोटर कहते हैं।   नेत्र की संरचना (Structure of Eye) - Human Eye

हॉर्मोन क्रिया की आण्विक क्रियाविधि (Molecular Mechanism of Hormone Action)

केटेकोलामिन्स , पेप्टाइड तथा प्रोटीन हॉर्मोन लिपिड-विलेय नहीं हैं , इसलिए प्लाज्मा झिल्ली की द्विलिपिड परत द्वारा उनकी लक्षित कोशिकाओं में प्रवेश नहीं हो सकता हैं। इसके अलावा जल विलये हॉर्मोन सतह ग्राही के साथ आकर्षित होते हैं , जैसे कि ग्लाइकोप्रोटीन। इन्सुलिन हॉर्मोन सुअध्ययनित उदाहरण प्रदान करता हैं। Molecular Mechanism of Hormone Action   बाह्यकोशिकीय ग्राही - इन्सुलिन के झिल्लीबद्ध ग्राही हेटेरोटेट्रामेरिक प्रोटीन हैं , जो चार उपइकाईयों की बनी होती हैं , दो a- उपइकाईयाँ कोशिका की सतह से बाहर निकलती हैं तथा इन्सुलिन से जुड़ती हैं तथा दो b- उपइकाई जो झिल्ली में ही रहती हैं तथा कोशिकाद्रव्य में निकलती हैं।  

जननांग तथा उनके हॉर्मोन (Reproductive organs & their hormones)

यौवनावस्था में नरों में वृषण तथा मादाओं में अण्डाशय लिंग हॉर्मोन स्त्रावित करते हैं। इनके हॉर्मोन निम्नानुसार हैं -   अन्तःस्त्रावी ग्रन्थि   हॉर्मोन   मुख्य कार्य अण्डाशयी पुटिका   एस्ट्रोजन   मादा लैंगिक लक्षणों जैसे मादाओं की आवाज , प्युबिक रोमों का वितरण व विकास को उद्दीप्त करता हैं , अग्र पीयूष ग्रन्थि के गोनेडोट्रोपिक हॉर्मोन के साथ यह रज चक्र को भी नियमित करता हैं। कॉर्पस ल्युटीयम   प्रोजेस्टेरॉन तथा एस्ट्रोजन   भ्रूण प्रत्यारोपण के लिए गर्भाशयी अस्तर को उद्दीप्त करते हैं। दुग्ध स्त्रावण के लिए स्तन ग्रन्थियों को तैयार करते हैं तथा अण्डजनन को नियमित करते हैं। प्रोजेस्टेरॉन अण्डोत्सर्ग को संदमित करता हैं।   रीलेक्सिन   प्युबिक सिम्फाइसिस को शिथिल करता हैं तथा गर्भावस्था के अन्त में गर्भाशयी ग्रीवा को फैलाने में सहायक हैं।   इनहिबिन/एक्टिन   फॉलिकल स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन तथा गोनेडोट्रोपिन रिलिजिंग हॉर्मोन उत्पाद

थाइमस ग्रन्थि (Thymus gland)

यह कोमल द्विपालित संरचना हैं , जहाँ दोनों पालियाँ संयोजी ऊत्तक द्वारा एक के बाद एक जुड़ी होती हैं। यह 15 वर्ष के बच्चों में अधिकतम आकार के साथ स्तूपाकार होती हैं। इसका आकार इसके लिम्फॉइड घटक की कमी के कारण कम होता हैं। इसका भार बच्चे के जन्म के समय 15-20 ग्राम होता हैं , जो बाद में भी इतना ही रहता हैं।           यह वयस्कों में गहरे लाल रंग की होती हैं तथा आयु के साथ पतली व स्लेटी हो जाती हैं तथा अन्त में एडिपोज ऊत्तक के इनफिल्ट्रेशन के कारण पीली हो जाती हैं।   थाइमस ढीले संयोजी ऊत्तक के केप्सूल द्वारा बाहर की ओर से आवरित होती हैं। इसके दो भाग बाहरी वल्कुट तथा आंतरिक मेड्युला होते हैं। चपटी उपकला कोशिका की बॉल ‘ हेसल की कणिकाऐं ’ कहलाती हैं तथा मेड्युला में कही न कही होती हैं। थाइमोसाइट्स कुछ बी-लिम्फोसाइट्स के साथ होती हैं। हॉर्मोन जो थाइमस ग्रन्थि द्वारा उत्पन्न होते हैं , थाइमोसिन कहलाते हैं। रक्त में स्त्रावित होने वाला थाइमोसिन सम्पूर्ण प्रतिरक्षी तंत्र पर उद्दीप्त प्रभाव डालता हैं। यह टी-लिम्फोसाइट्स का प्रवलम्बन तथा परिपक्वन प्रोमोट करता हैं। इसे “The throne of imm

पिनीयल ग्रन्थि (Pineal gland)

पिनीयल ग्रन्थि को तीसरी आँख के अवशेष के रूप में तथा कार्यात्मक अन्तःस्त्रावी ग्रन्थि के रूप में जाना जाता हैं। यह मस्तिष्क के पृष्ठ भाग में तीसरे निलय की छत से जुड़ी होती हैं , यह उत्पत्ति में एक्टोडर्मल होती हैं। इसमें केन्द्रिय तंत्रिका तंत्र के साथ प्रत्यक्ष रूप से संबंध नहीं होता हैं। यह आकृति में भिन्न होती हैं तथा भार में लगभग 150 मिली. ग्राम की होती हैं , लेकिन यह अत्यधिक संवहनीय होती हैं तथा अनेक हॉर्मोन स्त्रावित करती हैं , जिसमें मेलेशन सम्मिलित हैं।           मानवों की पिनीयल ग्रन्थि में प्रकाश संवेदी कोशिकाऐं नहीं होती , जैसे कि निम्नतर कशेरूकीयों में पाई जाती हैं। निम्नतर कशेरूकीयों में पिनीयल आँख समान होती हैं। पिनीयल ग्रन्थि जैविक क्लॉक के रूप में कार्य करती हैं , तंत्रिकास्त्रावी परिवर्तक सूचनाओं को परिवर्तित करते हैं। अंधेरे के समय मेलेटोनिन बनता हैं। इसका निर्माण बाधित होता हैं , जब प्रकाश आँख में प्रवेश करता हैं तथा रेटिनल तंत्रिकाओं को उद्दीप्त करता हैं। ये आवेगों को हाइपोथेलेमस में संचरित करते हैं तथा अंत में पिनीयल ग्रन्थि तक। इसके परिणाम में मेलेटोनिन स्

अग्नाशय (Pancreas)

अग्नाशय बहिस्त्रावी तथा अन्तःस्त्रावी भागों का बना होता हैं , अन्तःस्त्रावी भाग हॉर्मोन स्त्रावित करने वाली कोशिकाओं की छोटी संहति का बना होता हैं , जिसे लैंगरहैन्स के द्वीप कहते हैं। Pancreas  

एड्रीनल ग्रंथि (Adrenal gland)

एड्रीनल शंकुकार पिरामिड आकृति की दो ग्रन्थियाँ हैं। प्रत्येक एड्रीनल बाहरी एड्रीनल वल्कुट तथा केन्द्रिय एड्रीनल मध्यांश की बनी होती हैं। Adrenal gland   Ⅰ . एड्रीनल वल्कुट - एड्रीनल का यह भाग जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं तथा इसके अपक्षयन व प्रतिस्थापन से जन्तु मर जाता हैं। यह हॉर्मोन के तीन समूह स्त्रावित करता हैं , जैसे - मिनरेलोकॉर्टिकॉइड्स , ग्लुकोकॉर्टिकॉइड्स तथा लैंगिक कॉर्टिकॉइड्स।   1. मिनरेलोकॉर्टिकॉइड्स - यह एड्रीनल वल्कुट की सबसे बाहरी कोशिकीय परत जोनो ग्लोमेरूलोसा से स्त्रावित होता हैं। एल्डोस्टीरॉन मनुष्य , स्तनियों तथा पक्षियों में प्रमुख मिनरेलोकॉर्टिकॉइड हैं। मिनरेलोकॉर्टिकॉइड्स सोडियम आयन तथा पौटेशियम की उपापचय को नियमित करता हैं। इनका स्त्रावण प्लाज्मा में सोडियम आयनों की सान्द्रता में कमी या रक्त के परिसंचरित आयतन में कमी द्वारा उद्दीप्त होता हैं। एल्डोस्टीरॉन मूत्र , पसीने , लार तथा पित्त में सोडियम आयनों के निष्कासन को कम करता हैं। यह पौटेशियम आयनों के निष्कासन में वृद्धि करता हैं। रक्त में अधिक सोडियम आयनों के बने रहने से सोडियम आयनों के परासरणी प्रभा

पैराथाइरॉइड ग्रन्थि (Parathyroid gland)

ये छोटी मटर आकृति की ग्रन्थियाँ हैं , जो थायरॉइड के ठीक पास में ही होती हैं। ये पेराथार्मोन (कॉलिप हॉर्मोन) स्त्रावित करती हैं। ये रक्त में कैल्सियम स्तर का फीडबैक नियंत्रण करती हैं। रक्त कैल्सियम में कमी से पेराथार्मोन का स्त्रावण होता हैं , रक्त में कैल्सियम की वृद्धि से पेराथार्मोन स्त्रावण का संदमन होता हैं।           पेराथार्मोन रक्त प्लाज्मा में कैल्सियम आयन सान्द्रता को बढ़ाता हैं , क्योंकि यह अस्थियों से प्लाज्मा तक अनेक कैल्सियम आयन लाता हैं तथा कैल्सियम का मूत्र से निष्कासन को कम करता हैं। यह तब स्त्रावित होता हैं , जब प्लाज्मा में कैल्सियम आयन सान्द्रता घटती हैं तथा यह पुनः प्लाज्मा में कैल्सियम आयन सान्द्रता पुनः सामान्य करता हैं। इसके विपरीत यह मूत्र में फॉस्फेट निष्कासन को बढ़ाता हैं , जिससे प्लाज्मा में फॉस्फेट सान्द्रता कम होती हैं। अतः पेराथार्मोन कैल्सियम तथा फॉस्फोरस की उपापचय को नियमित करता हैं। Parathyroid gland   कैल्सियम समस्थैतिकता - रक्त में कैल्सियम आयन के सामान्य स्तर से उच्च स्तरता पर थायरॉइड ग्रन्थि की पेराफॉलिकुलर कोशिकाएँ उद्दीपित होती हैं। ये अ

थायरॉइड ग्रन्थि (Thyroid gland)

यह सबसे बड़ी अंतःस्त्रावी ग्रन्थि हैं , जो ग्रीवा में ट्रेकीया के निकट स्थित होती हैं। ग्रन्थि दो लम्बे अण्डाकार पिण्डों की बनी होती हैं , ये दोनों पिण्ड संकीर्ण बैण्ड द्वारा जुड़े होते हैं , जिसे इस्थमस कहते हैं। यह अत्यधिक संवहनीय अंग हैं तथा इसमें अनेक गोलाकार या अण्डाकार कोश समान पुटिकाएँ होती हैं। कोशिकाएँ थायरॉइड पुटिका को आस्तरित करती है तथा दो थायरॉइड हॉर्मोन स्त्रावित होते हैं , जैसे- थायरॉक्सिन या टेट्राआयोडोथायरोनिन (T 4 ) तथा ट्राईआयोडोथाइरोनिन (T 3 ) । ये दोनों अमीनों अम्ल की आयोडिनेटेड अवस्थाएँ हैं , जो टाइरॉसिन कहलाती हैं तथा पुटिका के रन्ध्र में अर्द्ध तरल पदार्थ समान जैली के रूप में संग्रहित रहते हैं। T 3 अधिक सक्रिय तथा T 4 की अपेक्षा कई गुणा सक्रिय होता हैं। थायरॉइड से मुख्यतया T 4 स्त्रावित होता है तथा परिधीय ऊत्तक के अन्दर T 3 में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण - यकृत। थायरॉइड ही केवल एक ऐसी ग्रन्थि हैं , जो इसके स्त्रावी उत्पाद अधिक मात्रा में संग्रहित करती है तथा आयोडिन उपापचयन में भी भाग लेती हैं। जब आवश्यकता होती है , तो हॉर्मोन कॉलोइड से रक्त में स